हनुमानजी (Hanuman ji) लंका अकेले नहीं गए थे, अपने हृदय के सिंहासन पर श्रीराम को विराजमान कर ले गए थे। तभी तो सीताजी के समक्ष हनुमानजी के हृदय में विराजमान राम अपनी विरह-व्यथा स्वयं ही कहते हैं- ‘कहेउ राम वियोग तव’ हनुमानजी को ‘सिन्दूरारूणविग्रह’ कहा जाता है।
हनुमानजी की प्रतिमा पर घी में सिन्दूर मिलाकर चढ़ाने की परम्परा है। आयुर्वेद के अनुसार सिन्दूर और सिन्दूर मिश्रित तैल में अस्थि और सभी प्रकार के व्रण को स्वस्थ करने की अद्भुत शक्ति होती है। हनुमानजी को सिन्दूर का चोला क्यों चढ़ाया जाता है, इस सम्बन्ध में कई कथाएं प्रचलित हैं।
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राज्याभिषेक के बाद भगवान श्रीराम दरबार में बैठकर सभी लोगों को उपहार दे रहे थे। श्रीराम ने सबसे अमूल्य अयोध्या के कोष की मणियों की माला सीताजी को दी और कहा यह हार तुम्हें जो अत्यन्त प्रिय हो, उसे दे देना।
सीताजी ने हनुमानजी के गले में वह हार डाल दिया। हनुमानजी उस हार की मणियों को तोड़कर ध्यान से देखने लगे। दरबार में बैठे सभी लोग हनुमानजी पर हंसने लगे और कहने लगे-आखिर हनुमान बंदर ही ठहरे, इन्हें मणियों का मूल्य क्या मालूम?
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एक दरबारी ने हनुमानजी से पूछा कि इनमें तोड़-तोड़कर तुम क्या देखते हो? इस पर हनुमानजी ने कहा-मैं इसकी बहुमूल्यता की परख कर रहा हूँ, किन्तु इसके भीतर न कहीं राम का रूप दिखता है और न ही नाम। तब उस दरबारी ने कहा-तुम अपने शरीर के भीतर देखो कि इसमें कहीं राम का नाम या रूप चित्रित है?
इस पर हनुमानजी ने अपने नखों से सारे शरीर को विदीर्ण कर डाला। आश्चर्य की बात यह थी कि उनके रोम-रोम में ‘राम’ यह दिव्य नाम व हृदय में ‘श्रीसीताराम’ का दिव्य रूप अंकित था। सीतामाता ने यह देखकर सिन्दूरादितैल के लेप से हनुमानजी के व्रणों (घावों) को पुन: स्वस्थ कर दिया। तभी से हनुमानजी सिन्दूरारूण विग्रह के रूप में सुशोभित होने लगे। सीतामाता के प्रसाद के रूप में सिन्दूर उन्हें बहुत प्रिय हो गया।
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शास्त्रों में सिन्दूर को मांगलिक व सौभाग्य-द्रव्य माना गया है जिसे सुहागिन स्त्री पति की आयु वृद्धि के लिए धारण करती है। एक बार हनुमानजी ने सीताजी से पूछा कि वे सिन्दूर क्यों धारण करती हैं?
इस पर सीताजी ने कहा–’वत्स! इसके धारण करने से तुम्हारे स्वामी की आयु की वृद्धि होती है।’ फिर क्या था हनुमानजी ने अपने स्वामी श्रीराम के आयुष्यवर्धन के लिए अपने सारे शरीर पर सिन्दूर पोत लिया।
हनुमानजी पूर्ण समर्पित रामभक्त हैं, जो रामकाज के लिए जगत में सदा विराजित हैं। वे मणि-माणिक में भी राम को ही खोजते हैं और नहीं मिलने पर उन्हें तोड़ देते हैं। चूंकि वे रामरस खोजते हैं, इसलिए जहां-जहां रामकथा होती है, वहां-वहां वे गुप्त रूप से आरम्भ में ही पहुंच जाते हैं। दोनों हाथ जोड़कर सिर से लगाए वे सबसे अंत तक वहां खड़े रहते हैं।
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प्रेम के कारण उनके नेत्रों से बराबर आंसू झरते रहते हैं। जब तक पृथ्वी पर श्रीराम की कथा रहेगी, तब तक पृथ्वी पर रहने का वरदान उन्होंने स्वयं प्रभु श्रीराम से मांग लिया है। वे सात चिरजीवियों में से एक हैं।
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