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होली पर विशेष: होली का त्यौहार उमंग और हर्षोल्लास का सर्वोपरि पर्व

भारत ही नाहीं अपितु संपूर्ण विश्व में मनाए जाए वाला होली (Holi) क त्यौहार हर्षोल्लास क सर्वोपरि परव ह। इ हमरे देश क मंगलोत्सव भी ह, अउर भारतीयता क शीर्षस्थ परव भी ह। होली वसंत ऋतु क यौवनकाल भी ह। होली के समय में जहवा एक ओर वन श्री के साथे-साथे खेत खरिहान भी फाल्गुन […]

भारत ही नाहीं अपितु संपूर्ण विश्व में मनाए जाए वाला होली (Holi) क त्यौहार हर्षोल्लास क सर्वोपरि परव ह। इ हमरे देश क मंगलोत्सव भी ह, अउर भारतीयता क शीर्षस्थ परव भी ह। होली वसंत ऋतु क यौवनकाल भी ह। होली के समय में जहवा एक ओर वन श्री के साथे-साथे खेत खरिहान भी फाल्गुन क ढलत ढलत संपूर्ण समृद्धि क आभा के साथे खिल उठेला, वहीं एकरे उल्लास में उमड़त अनगिनत रंग में कई चिंतन क रंग भी सम्मिलित ह। चिंतन क ए रंग में माननीय जीवन क अस्तित्व सिमटल ह। ए रंग में उल्लास के साथे विषाद, खुशी के साथे दु:ख अउर हंसी के साथे रुदन क भी सम्मिश्रण ह।

होली का ह ? होली के होली काहे कहल जाला ? एके जाने क खातिर हमके वैदिक परंपरा के जानल परम आवश्यक ह। खेत में लहलहात नवका अन्न क बाली के तोड़ के प्रज्वलित आग में भूजले क प्रथा सदियन से चलल आ रहल बा। एही कारन ए परव क नाम होली पडल। अनाज क बाल क संस्कृत में होला कहल जाला यथा:- “तृणाग्निं भ्राण्टर्ध्वपक्व शमधियं होलक:”

अर्थात तिनका के आग में भुजल अधपकल फल वाला अन्न के होलक कहल जाला, होली शब्द क उत्पत्ति एही होलक शब्द से ही मानल गइल बा। अपने देश क कई स्थान पर चना क भुजल बालीयन के होला (होरा) कही के पुकारल जाला। एही प्रकार फाल्गुन शुक्ल पूर्णिमा क हमार पूर्वज नवका जौ क बालीयन के हवन से अग्निहोत्र प्रारंभ करत रहले एही खातिर अपने प्राचीन ग्रंथन में होली के “यवाग्रथन यज्ञ” के नाम से भी संबोधित कइल गइल बा। होली के दिन अनेक प्रकार क रंग से लोग एक दूसरे क स्वागत करेले, आपसी शत्रुता के भूला के एक दूसरे से गले मीलले। अउर एक साथे मिलके ए उल्लास क पर्व के मनावे ले।

आज ए आधुनिक युग में सब कुछ परिवर्तित दिखाई पड़ रहल बा। आज होली ह, पर न त एमे पवित्रता क रंग ह अउर न ही पुरुषार्थ क उमंग। आज त खाली होलिका क कुचक्र अउरी दमित वासनाओं क उद्दाम अपने उफान पर बा। भक्ति के स्थान पर स्वारथ अउरी अहम क तमसाच्छन्न प्रवृत्ति से इ रंग अउर भी बदरंग हो चलल बा।

असहनशील अउरी असहिष्णु मन कुछ भी सुनले क तइयार नाहीं बा। आज मनुष्य अपने अन्दर भेद भाव क दीवारें खडा कै लीहले बाडे, त सामाजिक समरसता अउर सद्भाव क सुनर रंग कइसे विखरहीए। जाति, धरम, संप्रदाय अउरी वर्ग में लोगन क विभाजित अउरी विखंडित कइके होली क इ पर्व उल्लास के साथे क कइसे मनावल जा सकत ह ?

हम “प न ” इ देख रहल बाडी की आज ए पर्व के साथे जुडल मूल भावना के धीरे-धीरे लोग भुलात जात बा, तबे त रंगन क सतरंगी उल्लास में छटा बिखरले क बजाय हम सब एक दूसरे पर कीचड़ उछालले में लागल बाडी, अउर एकरे कालिख से होली क रंग में भंग डाल के एके अरुचि, अवसाद अउर वैर – वैमनस्यपूर्ण बनवले मे लोग लागल बा। जवन पर्व सहज ही अंतर के उल्लास उमंग भरल ऊर्जा के उर्ध्वगामी दिशा देवे वाला पावन अवसर रहल, उहे आज अश्लील पाशविक अउरी कुत्सित चेष्टा क अभिव्यक्ति क माध्यम बनले में लागल बा। मूल्य अउरी निष्ठा के नाम पर अपसंस्कृति क नग्न नर्तन चहुँओर दृश्यमान हो रहल बा।

सांस्कृतिक जागरण के बजाय इ अवसरवादी संस्कृति के नशा में धुत होके आत्म विस्मरण अउर पतनोन्मुख आत्मघाती वृत्तियन क पोषण क पर्व बनत जा रहल बा, जवन की आवे वाले पीढ़ियन के खातिर इ चिंतनीय बा। आवे वाले पीढ़ी ए त्योहारन क मूल उद्देश के न त जान पाई अउर ना ही समझ पाई।

होली में बसंती उमंगन के लेके सृजन पर्व क तरह एके मनावल जा, अउरी एमे सृजनात्मक, रचनात्मक, विधेयात्मक कार में आपन रुचि बढ़ावल जा, तबे होली मनावल सार्थक होई।