ये सब वो स्वाद हैं जो पंच सितारा होटलों में भी नहीं मिल सकते। आधुनिकता की चकाचौंध में ये सब व्यंजन सिमटते जा रहे हैं।
गांव में लगने वाला मेला, लोगों के सांस्कृतिक आदान-प्रदान का केंद्र होता था। यहां एक दिन में हजारों लोगों को रोजगार मिलता था। मेले में लोगों को एक-दूसरे से मिलने का मौका भी मिलता था और ग्रामीण स्तर पर बनने वाली मिठाइयों, हस्तनिर्मित खिलौनों, लकड़ी के उपस्करों आदि को भी बढ़ावा मिलता था।
लकड़ी और कोयले की आंच पर पकने वाले व्यंजनों का स्वाद अनूठा होता है। बिहार के ग्रामीण इलाकों में बनने वाले व्यंजन अपने आप में बहुत खास होते हैं। बिहार के गांवों में जलेबी हर जगह मिल जाएगी, और मिठाई का मतलब यहां जलेबी ही होता है। उत्तर बिहार के भोज में रसगुल्ला और गुलाब जामुन की जगह जलेबी खिलाने का ही प्रचलन है। मीठे का मतलब जलेबी और नमकीन का मतलब आलू का पकोड़ा होता है। प्याज के पकोड़े को यहां पियाजू कहते हैं और ये भी हर जगह मिल जाता है।
सुखी मिठाइयों में खुरमा, बताशा और बर्फी खूब प्रचलित हैं, और सूखे नमकीन में बेसन और मैदा के कई प्रकार के व्यंजन मिलते हैं। बिहार के ग्रामीण इलाकों के ये खास व्यंजन न सिर्फ स्वादिष्ट होते हैं बल्कि हमारी सांस्कृतिक धरोहर का भी हिस्सा हैं।
आइए, इन मेलों और व्यंजनों को सहेजें और अगली पीढ़ी को भी इनके अनूठे स्वाद से रूबरू कराएं!