गोरखपुर: राष्ट्रीय शैक्षिक प्रौद्योगिकी मंच (एनईटीएफ) के अध्यक्ष एवं अखिल भारतीय तकनीकी शिक्षा परिषद (एआईसीटीई) के पूर्व अध्यक्ष अनिल सहस्रबुद्धे (Anil Sahasrabuddhe) ने कहा कि आजादी के शताब्दी वर्ष तक भारत न केवल पूर्ण विकसित राष्ट्र अपितु पूरी दुनिया का सिरमौर होगा। इस गौरवपूर्ण उपलब्धि में छात्र, समाज और राष्ट्र के सर्वांगीण विकास के ध्येय वाली राष्ट्रीय शिक्षा नीति का अति महत्वपूर्ण योगदान होगा।
श्री सहस्रबुद्धे युगपुरुष ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी महाराज की 53वीं तथा राष्ट्रसंत ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ जी महाराज की 8वीं पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में आयोजित साप्ताहिक श्रद्धाजंलि समारोह के अंतर्गत शनिवार को ‘नए भारत के निर्माण में राष्ट्रीय शिक्षा नीति की भूमिका’ विषयक संगोष्ठी को बतौर मुख्य वक्ता संबोधित कर रहे थे। उन्होंने स्वामी विवेकानंद के विचारों को उद्घृत करते हुए कहा कि गुण हर बच्चे में होता है, उसे पहचान कर आगे बढ़ाने का दायित्व शिक्षा का है। 1835 में मैकाले ने भारत में अंग्रेजी पढ़ाकर सिर्फ क्लर्क बनाने की शुरुआत की थी। देश को आजादी मिलने के बाद जो भी शिक्षा नीतियां आईं, उनमें राष्ट्रीयता के अनुकूल बदलाव करने पर ध्यान नहीं दिया गया।
श्री सहस्रबुद्धे ने कहा कि 1967 में महंत दिग्विजयनाथ ने देश की संसद में समयानुकूल, मूल्यपरक और राष्ट्रीयता से ओतप्रोत शिक्षा व्यवस्था के लिए आवाज उठाई थी। उनके विचार अब राष्ट्रीय शिक्षा नीति में परिलक्षित हो रहे हैं। पहली बार ऐसी शिक्षा नीति बनी है जिसमें देश के ढाई लाख गांवों से लोगों के विचार के अनुरूप व्यावहारिक प्रावधान किए गए हैं। उन्होंने कहा कि हम रामराज्य की ही बात क्यों करते हैं, किसी और राज्य की क्यों नहीं। इसके पीछे मंशा यह है कि सबको समान अवसर मिले। समान अवसर वाली रामराज्य की परिकल्पना राष्ट्रीय शिक्षा नीति में भी है।
श्री सहस्रबुद्धे ने राष्ट्रीय शिक्षा नीति की बारीकियों की विस्तार से विवेचना करते हुए बताया कि क्षेत्रीय या नैसर्गिक भाषा में शिक्षा, स्वच्छता, पर्यावरण संरक्षण, कौशल विकास, भारतीय ज्ञान परंपरा की जीवंतता, मूल्यों का संरक्षण व संवर्धन, स्वयं, समाज व राष्ट्र के प्रति स्वाभिमान का भाव इस नीति के मूल में है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति में बच्चों को शुरुआती पांच वर्ष तक खेलकूद, कथाओं के माध्यम से सिखाने की बात निहित है। कक्षा छह से बच्चों की अभिरुचि के अनुसार कौशल विकास करने की मंशा है। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति में शिक्षकों के दायित्व पर भी जोर दिया गया है। इसका कारण यह है कि शिक्षक हर छात्र के गुण को अच्छे से पहचान लेता है। जैसे गुरु द्रोणाचार्य ने गुणों को पहचान कर ही अर्जुन को धनुर्विद्या और भीम को गदा चलाने में निपुण बनाया। इसी तरह गुणों को पहचान उसे निखारने की जिम्मेदारी शिक्षकों को उठानी होगी।
दुनिया के लोग भारत में सीखने आएंगे
श्री सहस्रबुद्धे ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति सक्षम नागरिक के माध्यम से सक्षम समाज और राष्ट्र के सर्वांगीण विकास का मंत्र है। इसमें मूल्य आधारित और छात्र के अंतर्निहित कौशल के अनुसार ज्ञान परंपरा को आगे बढ़ाते हुए भारत को विश्व गुरु और सोने की चिड़िया बनाने का संकल्प है। इस मंत्र और संकल्प का अनुसरण करते हुए अपना देश आजादी के अमृतकाल अर्थात अगले 25 वर्षों में उस स्थिति में होगा जब दुनिया के अन्य देशों के लोग भारत में सीखने आएंगे।
राष्ट्र निर्माण की धारणा है राष्ट्रीय शिक्षा नीति : प्रो पांडेय
संगोष्ठी के विशिष्ट वक्ता मदन मोहन मालवीय प्रौद्योगिकी विश्वविद्यालय के कुलपति प्रो जेपी पांडेय ने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति राष्ट्र निर्माण की धारणा है। व्यापक राष्ट्रीय हित में शिक्षा नीति को इस तरह तैयार किया गया है कि हर छात्र अपनी रुचि और तद्नुरूप कौशल विकास करते हुए स्वयं, समाज और राष्ट्र की समृद्धि में योगदान दे सके। प्रो पांडेय ने कहा कि भारत की ज्ञान परंपरा इतनी समृद्ध थी कि यहां तक्षशिला और नालंदा विश्वविद्यालय में प्रवेश के लिए चीन के कई प्रांतों में प्रवेश पूर्व तैयारी होती थी। राष्ट्रीय शिक्षा नीति एक बार फिर भारत को ज्ञान परंपरा में अग्रणी बनाने की शुरुआत है। उन्होंने कहा उच्च शिक्षा में उन क्षेत्रीय भाषाओं में अध्ययन पर बल दिया गया है जिनमें कोई छात्र बिना मानसिक दबाव तथ्यों को समझ सके। चीन, फ्रांस, रूस, जापान आदि विकसित देश अंग्रेजी की बजाय अपने देश की भाषा मे ही शिक्षा पर जोर देते हैं। प्रो पांडेय ने कहा कि छात्र की अभिरुचि के अनुसार उसके कौशल विकास पर जोर देने से रोजगार और विकास की समस्या का समाधान आप ही हो जएगा, यही राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मन्तव्य भी है।
भारत को विश्व में उच्च शिखर पर पहुंचाएगी राष्ट्रीय शिक्षा नीति: स्वामी श्रीधराचार्य
राष्ट्रीय शिक्षा नीति के परिप्रेक्ष्य में अपने विचार व्यक्त करते हुए अशर्फी भवन (अयोध्या) के पीठाधीश्वर जगद्गुरु रामानुजाचार्य स्वामी श्रीधराचार्य ने कहा कि शिक्षा को बाहर से थोपा नहीं जा सकता। इसलिए किसी छात्र को उसी क्षेत्र के अध्ययन के लिए प्रेरित किया जाना चाहिए, जिसमें उसकी रुचि हो। राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी इसी पर जोर देती है। प्राचीन काल से ही भारतीय ज्ञान दर्शन ने पूरे विश्व का मार्गदर्शन किया है। जहां पाश्चात्य ज्ञान का अंत होता है, वहां से भारतीय ज्ञान परंपरा शुरू होती है। उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति भारत को विश्व में उच्च शिखर पर पहुंचाएगी। संगोष्ठी की अध्यक्षता महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद के अध्यक्ष प्रो उदय प्रताप सिंह ने की। प्रो सिंह ने कहा कि गोरक्षपीठ के ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ जी एवं महंत अवेद्यनाथ जी शिक्षा को आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक दृष्टिकोण से समाज व राष्ट्र हित के अनुकूल बनाने का चिंतन करते थे। इस चिंतन को महाराणा प्रताप शिक्षा परिषद के चार दर्जन से अधिक शैक्षिक प्रकल्पों में देखा जा सकता है। वर्तमान पीठाधीश्वर एवं प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ भी शिक्षा को समग्र रूप में राष्ट्रीयता व मूल्यपरकता से जोड़कर अहर्निश आगे बढ़ाने में जुटे हैं। संचालन डॉ श्रीभगवान सिंह ने किया।
संगोष्ठी का शुभारंभ ब्रह्मलीन महंत दिग्विजयनाथ एवं ब्रह्मलीन महंत अवेद्यनाथ के चित्रों पर पुष्पांजलि से हुआ। वैदिक मंगलाचरण डॉ रंगनाथ त्रिपाठी व गोरक्ष अष्टक का पाठ गौरव और आदित्य पांडेय ने किया। इस अवसर पर महंत शिवनाथ, महंत गंगा दास, राममिलन दास, योगी राम नाथ, महंत मिथलेश नाथ, महंत पंचाननपुरी, गोरखनाथ मंदिर के प्रधान पुजारी योगी कमलनाथ, महायोगी गोरखनाथ विश्वविद्यालय के कुलसचिव डॉ प्रदीप कुमार राव समेत बड़ी संख्या में लोग उपस्थित रहे।