विचार

नेट ज़ीरो से पहले अल्‍पकालिक लक्ष्‍यों की तरफ ध्‍यान दे दुनिया: विशेषज्ञ

ग्‍लासगो में अगले महीने आयोजित होने जा रही सीओपी26 बैठक में ‘नेट जीरो’ के लक्ष्‍य को लेकर खास चर्चा की सम्‍भावनाओं के बीच विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया के विभिन्‍न देशों को ‘नेट जीरो’ के साथ-साथ अपने अल्‍पकालिक लक्ष्‍यों की प्राप्ति के लिये ठोस कार्ययोजना बनाकर काम करना चाहिये। वैश्विक स्‍तर पर जनहित से […]

ग्‍लासगो में अगले महीने आयोजित होने जा रही सीओपी26 बैठक में ‘नेट जीरो’ के लक्ष्‍य को लेकर खास चर्चा की सम्‍भावनाओं के बीच विशेषज्ञों का मानना है कि दुनिया के विभिन्‍न देशों को ‘नेट जीरो’ के साथ-साथ अपने अल्‍पकालिक लक्ष्‍यों की प्राप्ति के लिये ठोस कार्ययोजना बनाकर काम करना चाहिये। वैश्विक स्‍तर पर जनहित से जुड़े इस मामले के लिये ‘एफर्ट शेयरिंग फॉर्मूला तैयार करने की जरूरत है और अनुकूलन के मुद्दे को बाजार पर नहीं डाला जाना चाहिये।

अपनी जलवायु संबंधी महत्वाकांक्षा में वृद्धि और वैश्विक जलवायु कार्य निष्पादन योजना में योगदान के लिहाज से पूरी दुनिया की नजर भारत पर टिकी है। ऐसे में कॉन्फ्रेंस आफ पार्टीज के 26वें सत्र (सीओपी 26) के आयोजन से पहले के कुछ हफ्ते महत्वपूर्ण हैं।

अक्टूबर का महीना कूटनीति और जलवायु भूगोल-राजनीति के लिहाज से महत्वपूर्ण होगा। यूएनजीए की बैठक हाल ही में संपन्न हुई है और सबकी नजरें सीओपी26 की बैठकों से पहले जी-20 की बैठक में जलवायु के मुद्दे पर होने वाली चर्चा पर लगी है। भारत के सामने अपनी 130 करोड़ की आबादी के विकास और तरक्की तथा वैश्विक जलवायु नेतृत्व के बीच तालमेल बनाकर रखने की चुनौती है। ऊर्जा क्षेत्र को लेकर अपने लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में भारत ने शानदार प्रगति की है और परिवहन क्षेत्र को लेकर उसकी नीतियां बहुत प्रभावशाली नजर आती हैं। हालांकि विकसित और विकासशील देशों के बीच वित्त तथा प्रौद्योगिकी हस्तांतरण के मुद्दों को सुलझाया जाना चाहिए और कामयाबी हासिल करने के लिए ब्रिटेन और सीओपी प्रेसिडेंसी के सामने यह सबसे बड़ी चुनौती है। 

क्लाइमेट ट्रेंड्स ने सीओपी26 से पहले सीओपी पैकेज, वैश्विक विकास तथा भारत के लिए घरेलू आवश्यकताओं और अवसरों पर चर्चा करने के लिए बुधवार को एक वेबिनार आयोजित किया। 

टेरी के कार्यक्रम निदेशक श्री आर. आर. रश्मि ने ग्लास्गो कॉन्फ्रेंस से पहले यूएनएफसीसीसी द्वारा पेश की गई एक रिपोर्ट का हवाला देते हुए कहा कि इसमें वर्ष 2030 तक प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन में 45% तक की कमी लाने की बात की गई है जबकि सच्‍चाई यह है कि मात्र 11 से 16% लक्ष्य को ही हासिल किया जा सकता है। जाहिर है कि वैश्विक स्तर पर प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन में उस तरह की कमी नहीं आ सकी है जैसी कि जरूरत है, इसलिए लक्ष्यों को और बेहतर बनाने की आवश्‍यकता है, मगर सबसे बड़ा सवाल यह है कि इन लक्ष्यों को बेहतर कौन बनाएगा। सवाल यह है कि जिन देशों ने 2050 तक नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने का ऐलान किया है क्या वे वास्तव में दीर्घकाल के बजाय निकट भविष्य के लक्ष्यों को हासिल करने की बात कह रहे हैं।

उन्‍होंने कहा ‘‘नेट जीरो का लक्ष्य हासिल करने की घोषणा अनेक देशों ने की है मगर उनके सामने इसे हासिल करने का कोई ठोस कार्ययोजना नहीं है। यह उनकी इच्छा मात्र है। यह अत्यंत दुर्भाग्यपूर्ण है कि हम 2030 तक के लक्ष्‍यों को ही हासिल नहीं कर पा रहे हैं। इससे विकसित दुनिया का बनावटीपन सामने आता है। वैश्विक बैठकों में तरह-तरह की अपेक्षा लगाई जाती है लेकिन चीजें वैसी नहीं होती, जैसी होनी चाहिए।’’

रश्मि ने कहा कि भारत में सुधार की बहुत संभावनाएं हैं लेकिन भारत ग्लोबल मैट्रिक्स का एक हिस्सा है। जलवायु परिवर्तन से निपटना किसी एक देश मात्र के लिए करने वाली चीज नहीं है। दुनिया को एफर्ट शेयरिंग फॉर्मूला तैयार करने की जरूरत है ताकि सभी देशों को अपनी अपनी जिम्मेदारी के हिसाब से कदम उठाने का रास्‍ता मिल सके। इसकी कई व्याख्या हो सकती हैं लेकिन एक सामान्य और आसानी से समझी जा सकने वाली व्याख्या यह है कि देशों पर उनके द्वारा कुल वैश्विक उत्सर्जन में की जाने वाली भागीदारी के हिसाब से जिम्मेदारी भी डाली जानी चाहिए। भारत का कुल वैश्विक उत्सर्जन में योगदान मात्र 4% से 6% का है। अगर उस लिहाज से देखें तो भारत ने बाकी देशों के मुकाबले काफी अच्छा प्रदर्शन किया है। अब बाकी देशों को अपने अपने हिस्से का काम करना चाहिए। नेट ज़ीरो एक दीर्घकालिक लक्ष्य है और हमें दीर्घकालिक और अल्पकालिक दोनों ही लक्ष्यों को हासिल करने की दिशा में विस्तृतकार्य योजना के साथ काम करना चाहिए।

उन्‍होंने कहा मेरा मानना है कि ‘नेट जीरो’ दीर्घकाल में तो अच्छा है लेकिन 2021 में हमें 2030 के लक्ष्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। नेट जीरो के नाम पर देशों पर अपने विकास से समझौता करने के लिए दबाव डाला जा रहा है। हमें कम कार्बन उत्‍सर्जन वाली दीर्घकालिक रणनीति बनानी चाहिए, ताकि जलवायु संरक्षण संबंधी सरोकारों की पूर्ति हो सके।

क्‍लाइमेट पॉलिसी इनीशियेटिव-इंडिया के निदेशक श्री ध्रुव पुरकायस्‍थ ने अनुकूलन के लिए निजी पूंजी के इस्‍तेमाल पर जोर देते हुए कहा ‘‘जब हम आईपीसीसी वाले परिदृश्‍य को देखते हैं तो यह साफ जाहिर होता है कि 2030 के लक्ष्‍यों को हासिल करने के रास्ते में कुछ बाधाएं हैं। समस्या यह है कि दुनिया को सबसे पहले इस बात पर सहमत होना होगा कि विश्व को कार्बन स्टॉक की समस्‍या का हल निकालने की जरूरत है। दुनिया को इस बात पर भी सहमत होना होगा कि यह वैश्विक स्तर पर जनहित से जुड़ा मामला है। सरकारें इस मुद्दे को बाजार पर डाल देना चाहती हैं लेकिन वहां से समाधान प्राप्त नहीं होगा।

उन्‍होंने कहा ‘‘जब वर्ष 2030 या 32 के लिए निर्धारित लक्ष्यों को हासिल नहीं किया जा सकेगा, तब दुनिया को फिर से इस पर गौर करना होगा कि हम मामले से किस तरह निपटें यह निश्चित रूप से सार्वजनिक हित का मामला है और इसका समाधान बाजार से नहीं निकाला जा सकता। हमें अनुकूलन के लिए प्राइवेट कैपिटल को मोबिलाइज करना होगा। नेट जीरो का लक्ष्‍य प्राप्‍त करने के लिए समानता का तत्व होना निश्चित रूप से जरूरी है। दुनिया को कार्बन की कीमत तय करने की जरूरत है।’’

काउंसिल फॉर एनर्जी एनवायरमेंट के फेलो श्री वैभव श्रीवास्तव ने कहा कि सीओपी की अगली बैठक में नेटजीरो एक व्यापक नैरेटिव बनेगा लेकिन इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए एक सुगठित कार्ययोजना बनाना बेहद जरूरी है। भारत को वर्ष 2030 और 2040 के लिए अपने लक्ष्य निर्धारित करते हुए काम करना चाहिए।

डब्‍ल्‍यूआरआई में क्‍लाइमेट चेंज प्रोग्राम की निदेशक सुश्री उल्का केलकर ने व्यापक ऊर्जा नीति की मौजूदा स्थिति के बारे में जिक्र करते हुए कहा कि हम एक ऐसे ऊर्जा रूपांतरण की बात कर रहे हैं जिसके तहत रूपांतरण की प्रक्रिया को कई सालों के दौरान मूर्त रूप देने की बात कही गई है। सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी अथॉरिटी ने 191 गीगावाट बिजली उत्‍पादित करने वाले कोयला आधारित बिजली घरों में से 43 गीगावॉट का उत्‍पादन कर रहे ऐसे विद्युत संयंत्रों को 2040 तक चरणबद्ध ढंग से बंद करने का इरादा जताया है। हालांकि इसमें तेजी लाई जा सकती है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि क्या हमें तब तक नए कोयला बिजली घर बनाने चाहिए या नहीं। हमें इस पर अभी फैसला लेना होगा।

उन्‍होंने कहा कि यह दिलचस्प है कि अभी से 2030 तक की अवधि में 300 गीगावॉट अक्षय ऊर्जा उत्पादन होगा। क्योंकि इस वक्त भारत में करीब 200 गीगावॉट कोल केपेसिटी है। उसे चरणबद्ध ढंग से समाप्त किया जाना है। ऐसे में लगभग 2 रूपांतरण होंगे और एक रूपांतरण की कामयाबी से दूसरे रूपांतरण के लिए विश्वास पैदा होगा। हमें विविधीकरण पर ध्यान देना होगा। मेरा मानना है कि हम जितना ज्यादा अक्षय ऊर्जा की तरफ बढ़ेंगे हमें उतना ही स्टोरेज की जरूरत होगी वरना वह ऊर्जा किसी काम की नहीं रहेगी। स्टोरेज का मतलब सिर्फ बैटरी स्टोरेज से नहीं है बल्कि इसका मतलब पंप हाइड्रो और ग्रीन हाइड्रोजन और ग्रीन अमोनिया के उत्पादन से भी है ताकि अक्षय ऊर्जा को इन स्वरूपों में भी बेचा जा सके।

एटीआरईई के फेलो श्री जगदीश कृष्‍णास्‍वामी ने कहा कि आईपीसीसी की 1.5 डिग्री रिपोर्ट मूल रूप से विभिन्न क्षेत्रों के लिए एक चेतावनी है। इसमें भू क्षेत्र भी शामिल है। जो हालात हैं उन्‍हें देखते हुए हम वैश्विक तापमान में वृद्धि को डेढ़ डिग्री सेल्सियस तक सीमित रखने के लक्ष्य को हासिल नहीं कर पा रहे हैं। यहां तक कि यह आंकड़ा 2 डिग्री सेल्सियस तक पहुंच जाने की आशंका है। यह मानव कल्याण के विभिन्न पहलुओं के लिए विनाशकारी होगा। जलवायु परिवर्तन और भूमि की बात करें तो आबोहवा में बदलाव से इस कुदरती संसाधन पर भी बुरा असर पड़ेगा।

उन्‍होंने कहा कि कार्बन उत्‍सर्जन में कटौती करने के लक्ष्‍य को हासिल करने में वेटलैंड्स बहुत महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। मत्सियकी, जैव विविधता, जल सुरक्षा तथा किसानों को सिंचाई के लिए पानी उपलब्ध कराने जैसे पहलुओं से तालमेल करके ऐसा किया जा सकता है।

सीएएन इंटरनेशनल के रणनीतिक सलाहकार श्री हरजीत सिंह ने कहा कि मात्र नेट जीरो का लक्ष्य घोषित कर देना सही नहीं है। उसके लिए अल्पकालिक लक्ष्यों को हासिल करना जरूरी है। मगर दुर्भाग्‍य से इस वक्‍त उनकी कोई खास चर्चा नहीं की जा रही है। नेट जीरो का लक्ष्‍य अभी दूर है और उसे सम्‍भव बनाने के लिये अल्‍पकालिक लक्ष्‍यों को हासिल करना होगा। अगर स्थितियों पर गहराई से नजर डालें तो सीओपी तथा जलवायु से सम्‍बन्धित अन्‍य सम्‍मेलनों में जो बातें कहीं जाती हैं, उन पर अमल कम ही होता है। दुनिया को जलवायु परिवर्तन के विनाशकारी परिणामों से बचाना है तो ठोस कार्ययोजना बनाकर अभी से काम शुरू करना होगा।

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