विचार

एक रिसर्च पेपर से क्यों घबराई सरकार?

वैसे सरकार को लेखक से डरने का कोई कारण नहीं है। सब्यसाची दास अभी कोई प्रसिद्ध अर्थशास्त्री नहीं है। उनका अधिकांश लेखन जनकल्याणकारी योजनाओं के मूल्यांकन जैसे निरापद सवाल पर है।

15 अगस्त से एक दिन पहले आई यह खबर स्वतंत्रता के पक्षधर हर भारतीय को चिंता में डाल देगी। खबर यह है कि अशोक यूनिवर्सिटी के अर्थशास्त्र के युवा प्रोफेसर सब्यसाची दास को इस्तीफा देना पड़ा है। उनका अपराध सिर्फ यही है कि उन्होंने 2019 के चुनाव के आंकड़ों का विश्लेषण करते हुए एक अकादमिक पर्चा लिखा था । यह खबर देश के विश्वविद्यालयों और शोध संस्थानों में बची खुची अकादमिक स्वतंत्रता पर कुठाराघात है।

वैसे सरकार को लेखक से डरने का कोई कारण नहीं है। सब्यसाची दास अभी कोई प्रसिद्ध अर्थशास्त्री नहीं है। उनका अधिकांश लेखन जनकल्याणकारी योजनाओं के मूल्यांकन जैसे निरापद सवाल पर है। किसी राजनीतिक संगठन या विचारधारा से उनके संबंध का कोई संकेत नहीं है। यूं भी अशोक यूनिवर्सिटी कोई सरकारी ग्रांट पर चलने वाली संस्था तो है नहीं जो जिस पर सरकार अपना डंडा चला सके।

जिस लेख के बारे में हंगामा है वह अभी छपा नहीं है। शोध लेख सिर्फ एक दो कांफ्रेंस में प्रस्तुत किया गया है और प्रकाशन पूर्व चर्चा के लिए उपलब्ध है। इस शोध लेख में ना कोई सरकार की आलोचना है ना बीजेपी की निंदा, ना कोई आरोप-प्रत्यारोप न ही कोई राजनैतिक लफ्फाजी। “डेमोक्रेटिक बैकस्लिडिंग इन वर्ल्ड्स लार्जेस्ट डेमोक्रेसी” (दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में लोकतांत्रिक स्खलन) नामक इस लेख में 2019 लोक सभा चुनाव के आधिकारिक परिणामों का संख्यकीय पद्धतियों के सहारे विश्लेषण किया गया है। क्योंकि एक जमाने में मैं इस विषय का जानकार रहा हूं इसलिए मैं विश्वास से कह सकता हूं कि सब्यसाची दास का लेख भारत के चुनावी आंकड़ों पर लिखे गए सबसे गंभीर और गहन लेखों में से एक है।

विवाद इसके आंकड़ों या पद्धति से नहीं बल्कि इस लेख के निष्कर्ष से है। 2019 चुनाव के बूथ से लेकर सीट तक के आंकड़ों का बारीकी से विश्लेषण करने के बाद लेख इस निष्कर्ष पर पहुंचता है की दाल में कुछ काला है। जिन 59 सीटों पर जीत हार का फैसला 5 प्रतिशत से कम से अंतर से हुआ है, उनमें से 41 बीजेपी की झोली में गई। गणित के सामान्य नियमों के अनुसार और देश और दुनिया में चुनावों का पुराना रिकॉर्ड देखते हुए यह बहुत असामान्य रुझान है। यह पूरा लेख इस असामान्य रुझान की बारीकी से चीर फाड़ करता है। लेख इस संभावना की जांच कर इसे खारिज करता है की ऐसा भाजपा द्वारा बेहतर पूर्वानुमान और अच्छे चुनाव प्रचार की वजह से हुआ होगा। फिर एक-एक बात का पूरा प्रमाण देते हुए या लेख चुनाव में कुछ सीटों पर हेरा फेरी की ओर इशारा करता है। लेखक के अनुसार ऐसा या तो कुछ चुनिंदा सीटों पर मतदाता सूची में मुस्लिम मतदाताओं के नाम कटवाने या फिर मतदान या मतगणना में गड़बड़ी के जरिए हुआ होगा। क्योंकि लेख सांख्यिकीय पद्धति पर आधारित है इसलिए धोखाधड़ी की संभावना बता सकता है, लेकिन उसका प्रमाण नहीं दे सकता। कोई सनसनीखेज आरोप लगाने से बचते हुए लेखक यह स्पष्ट करता है की अगर ऐसा हुआ भी है तो इससे बीजेपी को ज्यादा से ज्यादा 9 से 18 सीटों का फायदा मिला होगा, जिससे बीजेपी के बहुमत पर असर नहीं पड़ता। इसलिए लेखक यह स्पष्ट करता है कि 2019 में बीजेपी धोखाधड़ी से चुनाव जीती थी, ऐसा निष्कर्ष बिलकुल गलत होगा।

इतनी सीमित बात कहने से भी बवाल मच गया है। बीजेपी समर्थक लेखक पर हर तरह के अकादमिक और व्यक्तिगत हमले कर रहे हैं। बीजेपी के सांसद निशिकांत दुबे (जिनकी अपनी डिग्री को लेकर विवाद है) ने अशोक विश्वविद्यालय से पूछा कि उसने अपने प्रोफेसर को ऐसा लेख लिखने की अनुमति कैसे दी? अपने अध्यापक के पक्ष में खड़ा होने की बजाय अशोक विश्वविद्यालय ने एक विज्ञप्ति जारी कर लेख और लेखक से पल्ला झाड़ लिया। कहने को तो प्रोफेसर दास ने विश्वविद्यालय से इस्तीफा दिया है (उन्हें विश्वविद्यालय द्वारा हटाया नहीं गया है) लेकिन इस हालात में दिए गए इस्तीफे को स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति नहीं माना जा सकता। जाहिर है कहीं ना कहीं लेखक पर दबाव रहा होगा जिसके चलते उसने इस्तीफा देना पड़ा।

इस घटना का अशोक विश्वविद्यालय में होना अपने आप में पूरे देश के लिए अशुभ संकेत है। गौरतलब है की इससे पहले प्रोफेसर प्रताप भानु मेहता और राजेंद्रन नारायण को भी सरकारी दबाव की आशंका के चलते अशोक विश्वविद्यालय छोड़ना पड़ा था। यह विश्वविद्यालय समाज विज्ञान और मानविकी में देश के सर्वश्रेष्ठ शैक्षणिक संस्थान के रूप में अपनी पहचान बना चुका है। यह वित्तीय रूप से भी सरकारी नियंत्रण से स्वतंत्र है। विश्वविद्यालय का दावा है कि वह अकादमिक स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध है। अगर ऐसे विश्वविद्यालय किसी अध्यापक को अपने शोध का यह अंजाम भुगतना पड़ता है तो साफ है कि देश के सभी विश्वविद्यालयों और अकादमिक संस्थानों की क्या हालत होगी।

अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की वकालत करते हुए जॉन स्टूअर्ट मिल ने कहा था की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता केवल सच और प्रमाणिक बातें कहने की स्वतंत्रता ही नहीं होती। कुछ अपवाद को छोड़कर जिसे हम असत्य समझते हैं उसे भी सार्वजनिक रूप से कहने की आजादी होनी चाहिए ताकि उसका सार्वजनिक खंडन होकर हम सब सच की दिशा में आगे बढ़े। इसलिए अगर एक क्षण को यह भी मान ले कि सब्यसाची दास की शोध त्रुटिपूर्ण है और उनके निष्कर्ष पुख्ता नहीं है तब भी उनकी आवाज को दबाना लोकतंत्र का अहित करता है। हर व्यक्ति को अधिकार है कि वह उनके आंकड़ों, पद्धति और निष्कर्ष का खंडन करे, जिसकी कोशिश भाजपा समर्थकों ने पिछले दो सप्ताह में की है। लेकिन सत्ता के बल पर ऐसी आवाज को बंद करना हमारे लोकतंत्र की कमजोरी का संकेत देता है। इससे यही संदेह पुष्ट होता है कि सब्यसाची दास ने सत्ता की कमजोर नस पर हाथ रख दिया था, कि हो न हो दाल में कुछ काला है।