पिछले दो दिन हमने अपने एक बचपन के सिख मित्र की बेटी के ब्याह के लिए देहरादून मे बिताए।
हम तीन मित्र दिल्ली से गए और दो दिन बिलकुल एक परिवार के सदस्य की तरह अपने सिख मित्र के घर रहे। चूंकि बचपन से उनके घर आना जाना रहा है तो परिवार के अलावा ज्यादातर रिश्तेदार भी हमें जानते हैं। मित्र के चाचा, बुआ सब हमारे चाचा, बुआ है। मित्र की दीदियां, जीजे हमारे दीदी और जीजा है।
हमे एक क्षण के लिए यह विचार नहीं आया कि हम हिन्दू हैं किसी तरह से अलग हैं। जैसे कि कुछ सिख कट्टरपंथी आजकल बताते हैं। हमारे अलावा वहां हमारे सिख मित्र के कई रिश्तेदार भी थे जोकि आज की परिभाषा के आधार पर हिन्दू हैं। यानी एक बात जोकि सिखों, हिन्दुओं के लिए कही जाती रही है और सत्य कही जाती है कि ‘रोटी-बेटी का साथ है‘, वह हमारे इस सिख मित्र के परिवार मे स्पष्ट दिख रहा था।
बारात आयी तो अरदास हुई और शेरो वाली माता के जयकारे लगे। आरती की थाली सजी थी और केशधारी दूल्हे को तिलक किया गया। सब कुछ बहुत अच्छे से हो गया और हम वापिस दिल्ली आ गए।
इस वृत्तांत को लिखने का विचार अभी एक समाचार को पढ़ते हुए आया जिसमें कि कनाडा के भारतीय कांसुलेट पर खालिस्तानियों के प्रदर्शन बारे मे लिखा गया है। तब मेरे दिमाग में एक प्रश्न आया-
खालिस्तान का जिन्न मरेगा कैसे?
कई तरह के उत्तर इस प्रश्न के सामने आते हैं। कोई इसे 84 के दंगों के दोषियों की सजा से जोड़ते हैं। कोई इसे पंजाब की सिख धर्म की राजनीति से जोड़ते हैं। यह भी देखा जाता है सिख नेता और आम सिख जनता अलग तरह से इस खालिस्तानी विचारधारा का विरोध करते हैं। परन्तु यह खलिस्तानी कुविचार पूरी तरह से खत्म कैसे होगा, ये एक यज्ञ प्रश्न है?
मेरे निजी विचार में जिस दिन ‘श्री अकाल तख्त साहेब’ से इस खालिस्तान के विचार को खारिज कर दिया जाएगा और उसके बाद एसजीपीसी इस विचार के विरोध मे खुलकर सामने आ जाएगी, उस दिन इस खालिस्तानी कुविचार की नाभि के अमृतकुंड पर प्रहार होगा और इसका अंत निश्चित हो जाएगा। शीर्ष सिख संस्थाओं की कोई भी निर्णायक कार्यवाही न करने की वजह यह सब इतना लंबा खिंच गया है और शीर्ष सिख संस्थाओं पर निर्णायक कार्यवाही करने का दवाब सिख संगत ही कर सकती है।
खालिस्तान न बना है और न कभी बनेगा, परन्तु इस पागलपन के चक्कर मे सिख समाज का जो नुक्सान हो चूका है और जो आगे भविष्य मे हो सकता है उसे रोकने की जिम्मेदारी शीर्ष सिख संस्थाओं को लेनी ही होगी। जिस दिन शीर्ष सिख संस्थाओं ने अपनी जिम्मेवारी निभा दी, वह दिन इस खालिस्तानी जिन्न का आखिरी दिन होगा।
(यह लेखक के निजी विचार हैं।)