विचार

न्‍यायसंगत एनर्जी ट्रांज़िशन बने जन सरोकार का मुद्दा: विशेषज्ञ

जी7, जी20 और यूएनएफसीसीसी सीओपी28 की अध्यक्षता इस साल क्रमशः जापान, भारत और संयुक्त अरब अमीरात के रूप में एशियाई देशों के पास है। ये अंतरराष्‍ट्रीय आयोजन दरअसल जलवायु परिवर्तन (Climate Change), ऊर्जा संक्रमण और वित्त के बारे में एक परिप्रेक्ष्‍य प्रदान करते हैं।

विशेषज्ञों का मानना है कि वर्ष 2070 तक नेट जीरो (Net Zero) का लक्ष्‍य हासिल करने के लिये भारत को न्‍यायसंगत एनर्जी ट्रांज़िशन (Equitable Energy Transition) को जन सरोकार का मुद्दा भी बनाना चाहिये। इस ट्रांज़िशन के लिये क्‍लाइमेट फाइनेंसिंग को भी कई गुना बढ़ाना होगा। ग्लोबल फाइनेंस आर्किटेक्चर (Global Finance Architecture) और ग्रीन क्लाइमेट फंड (Green Climate Fund) में निजी वित्त का प्रवाह बनाया जाना चाहिए।

जी7, जी20 और यूएनएफसीसीसी सीओपी28 की अध्यक्षता इस साल क्रमशः जापान, भारत और संयुक्त अरब अमीरात के रूप में एशियाई देशों के पास है। ये अंतरराष्‍ट्रीय आयोजन दरअसल जलवायु परिवर्तन (Climate Change), ऊर्जा संक्रमण और वित्त के बारे में एक परिप्रेक्ष्‍य प्रदान करते हैं।

सीओपी28 इस साल नवंबर-दिसंबर में आयोजित होने वाला है। पेरिस समझौते के तहत पहले ग्लोबल स्टॉकटेक (Global Stocktake) के जरिये बात को सामने रखा जाएगा। जलवायु कार्रवाई और प्रतिबद्धताओं में अंतर की पहचान करने के मकसद से जीएसटी के सुधार की संभावना के साथ एक परिणामी क्षण होने की भी संभावना है। वित्तीय संस्थानों में सुधार के एजेंडे को आगे बढ़ाने के लिए भारत पहले ही नेतृत्व की भूमिका निभा चुका है। भारत वैश्विक ऊर्जा परिवर्तन में एक महत्वपूर्ण भूमिका बनने की भी महत्वाकांक्षा रखता है।

इन सम्‍भावनाओं पर विचार-विमर्श करने के लिये जलवायु थिंक टैंक क्लाइमेट ट्रेंड्स और ऑब्‍जर्वर रिसर्च फाउंडेशन ने एक वेबिनार आयोजित किया।

हजारीबाग से भाजपा सांसद जयंत सिन्हा ने एक क्‍लाइमेट फाइनेंसिंग एक्‍शन और नये वैश्विक वित्‍तीय ‘आर्किटेक्चर’ के निर्माण की जरूरत पर जोर देते हुए अपने उद्घाटन सम्‍बोधन में कहा कि उनके अपने लोकसभा क्षेत्र में 4000 मेगावाट का अब तक सबसे बड़ा बिजली उत्‍पादन प्लांट लग रहा है जो कि कोयले पर आधारित है। यह देश की जीवाश्म ईंधन अर्थव्यवस्था का एक प्रमुख केंद्र है। अगर समग्र रूप से देखें तो इस लिहाज से न्‍यायसंगत एनेर्जी ट्रांज़िशन (जस्‍ट ट्रांजीशन) बेहद चुनौतीपूर्ण है। जहां तक कोयले की बात है तो मैं यह भी जोड़ना चाहूंगा कि अगर हमें 2070 तक नेट जीरो का लक्ष्‍य हासिल करना है तो हमें कोयले के इस्‍तेमाल को वर्ष 2045 से 2050 तक खत्म करना होगा। मगर यह सारी चीजें क्लाइमेट फाइनेंस से ही होंगी।

उन्‍होंने कहा कि भारत और ग्लोबल साउथ को क्लाइमेट फाइनेंस एक्शन की बहुत ज्‍यादा जरूरत है। जहां तक भारत का सवाल है तो उसे क्‍लाइमेट फाइनेंसिंग पर तुरंत 50 से 100 बिलियन डॉलर अधिक खर्च करने होंगे। कुल कैपेक्स कैपिटल की बात करें तो यह 65 बिलियन डॉलर होगा। अगर हमें वर्ष 2070 तक खुद को डीकार्बनाइज करना है तो ग्लोबल नॉर्थ से धन लाना होगा। धन के साथ-साथ ज्यादा उन्नत टेक्नोलॉजी की भी जरूरत होगी। निजी क्षेत्र को ज्यादा से ज्यादा निवेश करने की जरूरत है अगर हम सही मिश्रण वाला निवेश हासिल कर सके तो हमारे लिए जरूरी ट्रिलियन डॉलर्स हासिल करना आसान हो जाएगा। अगर हम एक नया वैश्विक वित्‍तीय आर्किटेक्चर बना पाए तो वैश्विक नॉर्थ से हमें काफी जलवायु वित्त हासिल हो सकेगा। हमें ऐसा माहौल बनाना होगा कि निजी क्षेत्र के वित्त का भी प्रवाह बेहतर हो सके। मुझे लगता है कि पेरिस और सीओपी28 में भी इस पर बात होगी।

द एनर्जी एण्‍ड रिसोर्सेज इंस्‍टीट्यूट (टेरी) के डिस्टिंग्‍विश्‍ड फेलो आरआर रश्मि ने वैश्विक फाइनेंस आर्किटेक्‍चर को सुधारने की जरूरत पर जोर देते हुए कहा, ‘‘बॉन ने खामियों को जाहिर कर दिया है। भविष्य में जो भी बातचीत होगी उसमें भी फाइनेंस का मुद्दा एक महत्वपूर्ण बिंदु होगा। ग्लोबल फाइनेंस आर्किटेक्चर को सुधारने की जरूरत है, मैं इससे पूरी तरह सहमत हूं। ग्लोबल फाइनेंस आर्किटेक्चर और ग्रीन क्लाइमेट फंड में निजी वित्त का प्रवाह बनाया जाना चाहिए। फाइनेंस का पूरा मुद्दा सिर्फ वित्त की उपलब्धता तक ही सीमित नहीं है बल्कि अगर हम इसमें प्राइवेट फाइनेंस, एमडीबी और सरकार को भी शामिल करें तो धन की कोई कमी नहीं होगी, लेकिन मुख्‍य बात यह है कि यह फाइनेंस रियायती दर पर होना चाहिए। अगर सरकार जलवायु सम्‍बन्‍धी जोखिम को वहन करे तो जोखिम से बेहतर तरीके से निपटा जा सकता है।

उन्‍होंने कहा कि न्‍यायसंगत एनेर्जी ट्रांज़िशन दरअसल वित्‍तीय प्रवाह से जुड़ा मुद्दा नहीं है। दरअसल, हमें एक ऐसा ‘नेगोशिएटिंग फ्रेमवर्क’ बनाना होगा जो न्‍यून कार्बन विकास को भविष्य में संभव बना सके और अनुकूलन को केंद्र में रखा जाए। हमें अनुकूलन के लिए भी धन उपलब्ध कराना चाहिए। ग्‍लोबल स्‍टॉकटेक (जीएसटी) को और अधिक व्‍यापक बनाया जाना चाहिए।

रश्मि ने प्रधानमंत्री नरेन्‍द्र मोदी की अमेरिका यात्रा का जिक्र करते हुए कहा कि भारत और अमेरिका की बातचीत से हम अच्छे नतीजों की उम्मीद कर सकते हैं लेकिन मैं नहीं जानता कि वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन से संबंधित चिंताओं को लेकर बातचीत किस तरफ बढ़ेगी। जहां तक भारत-अमेरिका के बढ़ते रिश्तों की बात है तो मेरा मानना है कि इससे टेक्नोलॉजी को बढ़ावा मिलेगा। अगर इस टेक्नोलॉजी को रिस्क फंड से समर्थित किया जाए तो बेहतर होगा।

क्लाइमेट ट्रेंड्स की निदेशक आरती खोसला ने कहा कि अंतरराष्ट्रीय विमर्श और जलवायु से संबंधित राजनीति में भारत की भूमिका महत्‍वपूर्ण है। आज विज्ञान और राजनीति को एक साथ लाने की चुनौती है। ऐसा करने में वैश्विक स्तर पर नाकामी भी जलवायु परिवर्तन संबंधी कार्य योजना के पूरी तरह कामयाब नहीं होने की एक वजह बड़ी है। लॉस एंड डैमेज फाइनेंस फैसिलिटी किस तरह की हो इस पर भी बात करने की जरूरत है।

उन्‍होंने कहा कि न्यूनीकरण का काम फाइनेंस के तालमेल से होना चाहिए। बॉन में यह सबसे बड़ा मुद्दा था। क्लाइमेट एजेंडा के क्रियान्वयन में यह बहुत बड़ा निर्वात है। ऐसा इस वजह से है क्योंकि वित्तीय समर्थन की कमी है। भारत के प्रधानमंत्री इस वक्त अमेरिका में हैं और जो संदेश मिल रहे हैं, वे बहुत अच्छे हैं। काफी अच्छी घोषणाएं हो रही हैं और भारत काफी बेहतर समझौतों की तरफ बढ़ रहा है लेकिन जहां तक ‘इंटरनेशनल नेगोशिएशन प्रोसेस’ की बात है तो अब भी काफी कुछ किया जाना बाकी है।

काउंसिल ऑन एनर्जी, एनवॉयरमेंट एण्‍ड वॉटर के फेलो वैभव चतुर्वेदी ने न्‍यायसंगत एनेर्जी ट्रांज़िशन का जिक्र करते हुए कहा कि जस्ट ट्रांजीशन एक ऐसी चीज है जिसके बारे में बहुत से लोग सहमत होंगे लेकिन सवाल यह है कि इस ट्रांज़िशन का मतलब क्या है। विकासशील देश कह रहे हैं कि फाइनेंस को जस्ट ट्रांजीशन का एक हिस्सा बनाना चाहिए लेकिन दूसरा पहलू यह है कि न्याय संगत ट्रांज़िशन को राष्‍ट्रीय रणनीति के साथ-साथ लोगों का भी सरोकार बनाया जाना चाहिये।

क्लाइमेट पॉलिसी इनीशिएटिव के इंडिया डायरेक्‍टर ध्रुव पुरकायस्थ ने जलवायु वित्त में वृद्धि के लिए बेहतर जवाबदेही के पहलू का जिक्र करते हुए कहा कि सवाल यह है कि एसडीआर किस तरह काम करते हैं। एसडीआर जोकि विकासशील देशों में खर्च नहीं हो रहा है उसे जोखिम वाले देशों पर खर्च किया जाना चाहिए। 100 बिलियन डॉलर बहुत छोटी रकम है। एमडीबी को पर्याप्त रूप से फायदा नहीं उठाया जा पार रहा है।

क्लाइमेट बॉन्ड्स इनीशिएटिव की इंडिया प्रोग्राम मैनेजर नेहा कुमार ने कहा कि न्‍यायसंगत एनेर्जी ट्रांज़िशन सिर्फ समतापूर्ण रवैये के ही नजरिये से नहीं हो सकता। निश्चित रूप से थीमैटिक ऋण पूंजी से जुड़ा अवसर बहुत बड़ा है। अगर हम न्‍यूनीकरण और अनुकूलन के मुद्दों पर गौर करें तो उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के नजरिए से खासतौर पर भारत के लिहाज से देखें तो पिछले नौ वर्षों के दौरान हम धन उठाने की स्थिति में रहे हैं और यह लगभग 30 बिलियन डॉलर है।

उन्‍होंने कहा कि ज्यादातर परियोजनाओं में मिलने वाला रिटर्न निजी निवेशकों के लिए उपयुक्त नहीं है, लेकिन साथ ही साथ अगर सरकार को इस बाजार की सम्‍भावनाओं का वाकई फायदा लेना है तो उसे इससे जुड़ी समस्याओं के एक हिस्से का समाधान भी करना चाहिए।

इंटरनेशनल काउंसिल ऑन क्‍लीन ट्रांसपोर्टेशन के इंडिया मैनेजिंग डायरेक्‍टर अमित भट्ट ने कहा कि परिवहन का क्षेत्र सबसे तेजी से बढ़ते प्रदूषणकारी क्षेत्र के रूप में उभर रहा है। सवाल यह है कि हम क्या कर सकते हैं। हमें ट्रांसपोर्ट को डीकार्बनाइज करना होगा ताकि हम 2070 तक नेटजीरो का लक्ष्य हासिल कर सकें। इसके लिये भारत को 2045 तक हर हाल में सभी सड़क परिवहन साधनों को शून्य उत्सर्जन वाहनों के रूप में तब्दील करना होगा।

उन्‍होंने कहा कि इस लिहाज से देखें तो सबसे बड़ा सवाल यह है कि कि अभी क्या हो रहा है और आगे कितना कुछ करना जरूरी है। केन्‍द्र सरकार ने फेम नाम की एक नीति लागू की है लेकिन यह अच्छी बात है कि अब राज्य भी अपनी-अपनी नीतियां लेकर आ रहे हैं। हालांकि अगर हम परिवहन क्षेत्र को देखें तो 65% वाहन मध्‍यम से भारी वाहनों की श्रेणी में आते हैं। यह सबसे बड़ा क्षेत्र है जिसे कार्बन मुक्‍त करने पर बहुत ज्यादा बात नहीं हो रही है।

द एनर्जी एण्‍ड रिसोर्सेज इंस्‍टीट्यूट के सीनियर फेलो गिरीश सेठी ने स्टील क्षेत्र को कार्बन मुक्‍त करने की सम्‍भावनाओं पर अपने विचार रखते हुए कहा, ‘‘स्टील क्षेत्र में सरकार और कारपोरेट के स्तर पर काफी संभावनाएं हैं लेकिन मूलभूत चीज यह है कि भारत जैसे देश के लिए आज हम 130 मिलि‍यन टन उत्पादन के लक्ष्‍य की बात भी कर रहे हैं। समस्या यह है कि वह इन लक्ष्यों को हासिल करते हुए डीकार्बनाइजेशन का लक्ष्य भी हासिल करे। हालांकि यह एक अवसर भी है।

चुनौती यह है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के पास स्टील उत्पादन की ऐसी कोई टेक्नोलॉजी उपलब्ध नहीं है। अगर हम मिसाल के तौर पर स्टील क्षेत्र पर ध्‍यान केन्द्रित करें तो हमें यह बातें माननी होंगी कि भारत जैसे देश में हमारे पास ज्यादा स्क्रैप नहीं है। दूसरे देशों में स्क्रैप आधारित प्लांट हैं। यह सही है कि नई नीति घोषित होने के बाद पुराने वाहनों के रूप में स्क्रैप की उपलब्‍धता बढ़ेगी, लेकिन उससे जुड़ी हुई भी अपनी चुनौतियां हैं। स्टील उद्योग को देखें तो हमारा ढांचा काफी अलग है। भारत के पास काफी ऐसे प्लांट है जो कोयले पर आधारित हैं।

उन्‍होंने कहा कि अगर हम सीमेंट, बिजली और अन्‍य दूसरे क्षेत्रों की बात करें तो मेरा यही मानना है कि भारत का इस मामले में कोई बहुत ज्यादा प्रभाव है। टेक्नोलॉजी को लेकर काफी ज्यादा चुनौतियां हमारे सामने खड़ी हैं। ईट निर्माण क्षेत्र में लगभग उतना ही कोयला इस्तेमाल होता है जितना कि सीमेंट उत्पादन में। दुनिया में ऐसा कोई भी प्लांट नहीं है जहां अक्षय ऊर्जा का इस्तेमाल करके ईंटे बनाई जाती हों, कुल मिलाकर टेक्नोलॉजी को लेकर काफी चुनौतियां हमारे सामने खड़ी हैं।