परवलपुर-एकंगरसराय रोड पर है एक छोटा सा गांव है मघड़ा सिद्धपीठ। सिद्धपीठ मघड़ा (Siddhpeeth Maghda) में शीतला माता मंदिर (Sheetla Mata Mandir) में माथा टेकने के लिए लोग दूर दूर से आते हैं। सबसे बड़ी बात है कि इस मंदिर में नवरात्र (Navratra) के दिनों में महिलाओं का प्रवेश वर्जित है जानें, क्यों और मंदिर की कहानी और इससे जुड़ी मान्यता के बारे में।
नवरात्र में महिलाओं के प्रवेश पर रोक
नवरात्र दिनों में यहां मां की विशेष पूजा की जाती है। जिसे वाम पूजा या तंत्र पूजा कहा जाता है। बाहर से भी तांत्रिक व माता के साधक यहां आकर सिद्धियां प्राप्त करने के लिए तंत्र साधना करते हैं। यही कारण है कि नवरात्र के नौ दिनों तक महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी रहती है। शायद देश का यह पहला देवी मंदिर होगा जहां नवरात्र में महिलाओं के प्रवेश पर पाबंदी रहती हैं। यह परम्परा सदियों पुरानी हैं।
दसवीं की निशा आरती के बाद ही महिलाओं को माता के दर्शन की अनुमति मिलती है। कहा जाता है कि तंत्र पूजा में महिलाओं के शामिल होने से साधना भंग होती है। सबसे बड़ी खासियत यह है कि महिलाएं खुद सदियों से चली आ रही इस परंपरा का पूरी तरह से पालन करती हैं।
शीतला माता की कथा
माता शीतला (Siddhpeeth Maghda Mata Temple) का वर्णन स्कंद पुराण में मिलता है। मान्यता के मुताबिक दक्ष प्रजापति ने आदिकाल में एक महायज्ञ किए थे। उस यज्ञ में उन्होंने अपने दामाद वृषकेतु (शंकर जी) और अपनी पुत्री सती को आमंत्रित नहीं किया था, जबकि दूसरे देवी-देवताओं को आमंत्रण भेजा गया था। इस बात की जानकारी जब सती को हुई थी तो वे बिना आमंत्रण के ही पिता के यहां जाने के लिए भगवान वृषकेतु से आज्ञा मांगी। परंतु उन्होंने बिना आमंत्रण के जाना अनुचित समझकर जाने से मना कर दिया। बावजूद सती नहीं मानीं और यज्ञ को देखने चली गयीं।
यज्ञ मंडल में पहुंचने पर उनकी माता और बहन को खुशी हुई, लेकिन पिता बिना बुलावे के अपनी पुत्री को आए देख नाराज हो गये। अपने पिता की अपमान भरी बातों को सुनकर सती दुखी हो गयीं और योग माया से अग्नि प्रज्जवलित कर आत्मदाह कर ली। इसकी जानकारी दूत द्वारा जब वृषकेतु जी को हुआ तो वे धधकती अग्नि से सती को निकाला और क्रोध में सती के शरीर को कंधे पर रख इधर-उधर दौड़ने लगे। जब यह बात विष्णु भगवान को मालूम हुई तो उन्हें शंकर जी के क्रोध से संसार के विध्वंस होने का भय सताने लगा।
तब संसार की रक्षा के लिए वे शंकर जी के कंधे पर रखे सती के शरीर पर अपना सुदर्शन चक्र चलाये। जिससे शरीर के अंग एक सौ आठ खंड होकर भिन्न-भिन्न स्थानों पर जा गिरे। जहां-जहां सती के शरीर का खंड और आभूषण गिरे, उस स्थान को देवी के सिद्धपीठ माना गया।
सिद्धपीठ मघड़ा की कहानी
मान्यता के मुताबिक भगवान शंकर ने अपने कंधे पर सती के शरीर के चिपके हुए अवशेष को एक घड़े में रख बिहारशरीफ से पंचाने नदी के पश्चिमी तट पर धरती में छुपाकर अन्तरध्यान हो गए। बाद के दिनों में गांव के एक राजा वृक्षकेतु को माता स्वप्न में आईं। माता ने स्वप्न में पंचाने नदी किनारे की जमीन में दबे होने की बात बताई। माता के आदेश के बाद राजा ने उक्त जमीन की खुदाई कराई तो वहां से मां की प्रतिमा मिली जिसे बाद में पास में मंदिर बनाकर उन्हें स्थापित कर दिया गया।
आज यही मघड़ा का शीतला मंदिर के नाम से प्रसिद्ध है। जहां पर खुदाई की गई थी वो कुएं का रूप ले लिया जो आज मिठ्ठी कुआं के रूप में जाना जाता है। स्थानीय लोगों के मुताबिक इस कुएं का पानी आज तक नहीं सूखा है।
दिन में मंदिर में नहीं जलते दीए
मघड़ा सिद्धपीठ स्थित माता शीतला मंदिर में दिन में दीपक नहीं जलते हैं। धूप, हुमाद और अगरबत्ती जलाना भी मना है। भगवान सूर्य के अस्त होने के बाद ही मंदिर में माता की आरती उतारी जाती है और हवन होता है। कहा जाता है कि माता शीतला के शरीर में बहुत जलन (लहर) रहता है। इसलिए मंदिर में दीपक, धूप या हवन करना वर्जित माना गया है।
माता को जलन से राहत मिले, इसके लिए हर दिन सुबह में दही और चीनी से उन्हें स्नान कराया जाता है। अगर कोई मंदिर में भूलवश दीपक, अगरबत्ती या हुमाद चलाने की चेष्ठा करते हैं तो उनके शरीर में भी तेज लहर होने लगती है। इसलिए मंदिर में कपूर, दीपक या हुमाद जलाने पर पूर्ण पाबंदी है। सूर्यास्त के बाद सबसे पहले मंदिर पुजारी दीपक जलाकर आरती करते हैं। उसके बाद श्रद्धालु भी दीपक दीप-धूप जलाते हैं।
काले पत्थर की है प्रतिमा
माता शीतला मंदिर का गर्भगृह दस गुना दस फीट चौड़ी तथा 12 फीट ऊंचा है। गर्भगृह में काले पत्थर की 12 इंच लंबी मां शीतला की प्रतिमा स्थापित है। प्रतिमा के मुकुट के ऊपर नौ रेखाएं हैं जो नौ देवियों के प्रतीक हैं। मां की दायीं ओर सूर्य और बायीं ओर चन्द्र हैं। माता की चार भुजाएं हैं। एक हाथ में कलश है। दूसरे में श्री शीतलाष्टक की पुस्तक है। तीसरे हाथ में बिषहरणी नीम्ब की डाली और चौथे हाथ में विभूति और फल की झोली है।
दही व बताशा का भोग
पूजा-अर्चना मुख्य रूप से दही और बताशा का भोग लगाकर की जाती है। वैसे समय के साथ भक्तगण नारियल, चुनरी, चना, दूध आदि भी चढ़ाने लगे हैं।
पशुओं की बलि पर पाबंदी
माता शीतला के दरबार में पशुओं की बलि देने पर पूर्ण पाबंदी है। हालांकि कई श्रद्धालु मनोकामना पूरी होने पर यहां पाठी (बकरी के बच्चे) को दान करते हैं। लेकिन उसकी बलि देना वर्जित है। इसलिए ऐसे श्रद्धालु मंदिर के पुजारी को संकल्प कराकर पशु को दान देते हैं।
चैत्र अष्टमी को स्थापित हुई थी प्रतिमा
मां शीतला मंदिर में पूजा करने के बाद मंदिर से थोड़ी दूर पर स्थित कुआं है। इसी कुआं से मां की प्रतिमा मिली थी। श्रद्धालु इस कुएं की पूजा जरूर करते हैं। जिस दिन मां की प्रतिमा कुएं से निकाली गयी थी उस दिन चैत्र कृष्ण पक्ष की सप्तमी थी तथा अष्टमी के दिन मां की प्रतिमा की स्थापना हुई थी। उसी समय से मघड़ा में मेले की शुरुआत हुई, जो अबतक जारी है।
संतान, धन व निरोग काया देती हैं मां
मां शीतला महारानी अपने भक्तों की खाली झोली जरूर भरती हैं। माता की कृपा जिस पर बनी रहती है, उनपर कोई विपत्ति नहीं आती। माता अपने भक्तों को निरोगी काया देती हैं। मां की कृपा से नि:संतान को संतान और निर्धन को धन की प्राप्ति होती है।
तालाब में स्नान करने से चेचक से निजात
शीतला मंदिर के पास ही बड़ा सा तालाब है। माता के दर्शन को आने वाले श्रद्धालु तालाब में स्नान करने के बाद ही पूजा-अर्चना करते हैं। मान्यता के मुताबिक तालाब में स्नान करने से चेचक रोग से निजात मिल जाती है। यहां सभी धर्मों के लोग चेचक के निवारण के लिए माथा टेकते हैं।