शनि, ग्रह व देवता दोनों रूप में पूजे जाते हैं। शनिदेव (Shanidev) व्यक्ति को उसके अच्छे व बुरे कर्मो का फल प्रदान करते हैं। इसी कारण इन्हें कर्म दंडाधिकारी का पद प्राप्त है। यह पद उन्हें भगवान शंकर से प्राप्त है। मूलतः शनि कर्म प्रधान ग्रह है, जिसका पुराणों ने साकार दार्शनिक चित्रण किया है। शास्त्रनुसार शनि के अधिदेवता ब्रह्मा व प्रत्यधिदेवता यम हैं। कृष्ण वर्ण शनि का वाहन गिद्ध है व यह लोह रथ की सवारी करते हैं।
शनि ने अपनी दृष्टि से पिता सूर्य को कुष्ठ रोग दे दिया था। कहते हैं जिन पर इनकी कुदृष्टि पड़ती है, वो राजा से रंक बन जाता है। देवी-देवता तक इनसे प्रकोप से डरते हैं, लेकिन सबको को सजा देने वाले शनि देव को भी एक बार 19 वर्षों तक उल्टे लटकना पड़ा था। जानें क्यों?
शास्त्रों के अनुसार, सूर्य ने अपने सभी पुत्रों की योग्यतानुसार उन्हें विभिन्न लोकों का अधिपत्य प्रदान किया, परंतु असंतुष्ट शनि ने उद्दंडता वश पिता की आज्ञा की अवेलना करते हुए दूसरे लोकों पर कब्जा कर लिया। तब सूर्यदेव की प्रार्थना पर भगवान शंकर ने अपने गणों को शनि से युद्ध करने भेजा परंतु शनिदेव ने उनको परास्त कर दिया। इसके उपरांत भगवान शंकर व शनिदेव में भयंकर युद्ध हुआ। शनिदेव ने भगवान शंकर पर मारक दॄष्टि डाली तो भगवान शंकर ने तीसरा नेत्र खोलकर शनि व उनके सभी लोक का दमन कर त्रिशूल का प्रहार करके शनि देव को पराजित किया।
इसके बाद शनि को सबक सिखाने के लिए महादेव ने उन्हे पीपल के पेड़ से 19 वर्षों तक उल्टा लटका दिया। इन्हीं 19 वर्षों तक शनि शिव उपासना में लीन रहे। इसी कारण शनि की महादश 19 वर्ष की होती है, परंतु पुत्रमोह से ग्रस्त सूर्य ने महेश्वर से शनि का जीवदान मांगा। तब महेश्वर ने प्रसन्न होकर शनि को मुक्त कर उन्हें अपना शिष्य बनाकर संसार का दंडाधिकारी नियुक्त किया।