भगवान शिव के फल से ज्येष्ठ की अमावस्या में भगवान शनिदेव (Shanidev) का जन्म हुआ। सूर्य के तेज और तप के कारण शनिदेव का रंग काला हो गया। लेकिन माता की घोर तपस्या के कारण शनि महाराज में अपार शक्तियों का समावेश हो गया।
कहा जाता है कि एक बार भगवान सूर्यदेव पत्नी छाया से मिलने आए। उस वक्त सूर्यदेव के तप और तेज के कारण शनिदेव महाराज ने अपनी आंखें बंद कर ली और वह उन्हें देख नहीं पाए। भगवान शनि के वर्ण को देख सूर्यदेव ने पत्नी छाया पर संदेह व्यक्त किया औऱ कहा कि यह मेरा पुत्र नहीं हो सकता। इसके चलते शनिदेव के मन में पिता सूर्य के प्रति शत्रुवत भाव पैदा हो गया।
इसके बाद शनिदेव महाराज ने भगवान शिव की कड़ी तपस्या की। भगवान शिव ने शनिदेव की कड़ी तपस्या से प्रसन्न होकर वरदान मांगने को कहा, जिस पर शनिदेव ने भगवान शिव से कहा कि सूर्यदेव उनकी माता को प्रताड़ित और अनादर करते हैं। इससे उनकी माता को हमेशा अपमानित होना पड़ता है। उन्होंने सूर्य से अधिक शक्तिशाली और पूज्यनीय होने का वरदान मांगा।
इस पर भगवान शिव ने शनिदेव को वरदान दिया कि वह नौ ग्रहों (Nav Grah) के स्वामी होंगे यानि उन्हें सबसे श्रेष्ठ स्थान की प्राप्ति होगी। इसके साथ ही सिर्फ मानव जाति ही नहीं बल्कि देवता, असुर, गंधर्व, नाग और जगत का हर प्राणी और जाति उनसे भयभीत होगा।
ज्योतिषशास्त्र के अनुसार, शनि की धरती से दूरी लगभग नौ करोड़ मील है औऱ इसकी चौड़ाई एक अरब बयालीस करोड़ साठ लाख किलोमीटर है। इसका बल धरती से पंचानवे गुना अधिक है। शनि को सूर्य की परिक्रमा करने में उन्नीस वर्ष लगते हैं।