भगवान शिव (Lord Shiva) स्वयं परब्रह्म हैं। इसलिए वे अपने वास्तविक स्वरुप में यानी नग्न रहना पसंद करते हैं। लेकिन उन्होंने श्रीहरि की विनती स्वीकार करके बाघंबर या सिंहचर्म को वस्त्र के रुप में स्वीकार किया।
ये कहानी भगवान विष्णु (Lord Vishnu) के नरसिंह अवतार (Narsingh Avtaar) से जुड़ी हुई है। प्रह्लाद की रक्षा के लिए श्रीहरि ने नरसिंह अवतार धारण करके हिरण्यकशिपु का वध अपने पंजे से कर दिया। लेकिन भक्त पर हुए अत्याचार से नाराज नरसिंह पूरी सृष्टि के विनाश के लिए उतारु हो गए।
उन्होंने समस्त देवताओं यहां तक कि ब्रह्माजी और लक्ष्मी की प्रार्थना भी अस्वीकार कर दी। तब सृष्टि की रक्षा के लिए महादेव ने अपने गण वीरभद्र को भेजा। वीरभद्र ने नरसिंह रुपी विष्णु को उनका असली स्वरुप याद दिलाने का प्रयास किया। लेकिन मोहग्रस्त नरसिंह ने उनकी एक न सुनी। तब महादेव ने संसार की रक्षा के लिए शरभ अवतार धारण किया। जो वीरभद्र, गरुड़ और भैरव का सम्मिलित स्वरुप था। उसके आठ शक्तिशाली पंजे और शक्तिशाली पंख थे। शरभरूप में एक पंख में वीरभद्र एवं दूसरे पंख में महाकाली स्थित हुये। भगवान शरभ के मस्तक में भैरव एवं चोंच में सदाशिव स्थित हुये और शरभ रूपी शिव ने भगवान नृसिंह को अपने पंजों में जकड़ लिया और आकाश में उड़ गये।
फिर भगवान शिव अपनी पूंछ में नृसिंह को लपेटकर छाती में चोंच का प्रहार करने लगे। फिर पंजों से उसकी नाभि को चीर दिया। नरसिंह का मोह नष्ट हो गया। उसका तेज अलग होकर महाविष्णु के रुप में प्रकट हुआ। उन्होंने महादेव से अनुरोध किया कि नरसिंह के चर्म को अपने वस्त्र के रुप में स्वीकार करके सम्मानित करें। इसके बाद महान पशुपति शिव ने उस चर्म को अपने वस्त्र और आसन के रुप में धारण किया और भक्तजनों के हृदय में अपना मोहक स्वरुप प्रकाशित किया।