Shri Kalahasti Temple: आंध्र प्रदेश में एक ऐसा मंदिर है, जहां राहू और काल सर्पदोष दूर करने की पूजा होती है। राज्य के चित्तूर जिले में स्थित श्री कालाहस्ती मंदिर की सालाना कमाई सौ करोड़ रुपए से भी अधिक है। यह मंदिर वास्तव में भगवान शिव का मंदिर है, लेकिन यहां राहुकाल की पूजा के साथ- साथ कालसर्प की भी पूजा होती है। कहा जाता है कि इस मंदिर में भगवान शिव को वायु रूप में एक कालहस्तीश्वर के रूप में पूजा जाता है। जानें भगवान शिव के इस मंदिर से जुड़ा रहस्य।
तिरूपति शहर से करीब 35 किमी दूर श्रीकालहस्ती गांव में स्थित यह मंदिर दक्षिण भारत में भगवान शिव के तीर्थस्थानों में अहम स्थान रखता है। लगभगर दो हजार वर्षो से इसे दक्षिण का कैलाश या दक्षिण काशी नाम से भी जाना जाता हैं। यहां भगवान कालहस्तीश्वर के साथ देवी ज्ञानप्रसूनअंबा भी स्थापित है।
माना जाता है कि इस स्थान का नाम तीन पशुओं श्री यानी मकड़ी, काल यानी सर्प और हस्ती यानी हाथी के नाम पर किया गया है। कहा जाता है कि तीनों ने ही यहां पर भगवान शिव की आराधना करके मुक्ति पाई थी। मकड़ी ने शिवलिंग पर तपस्या करके जाल बनाया, सांप ने शिवलिंग पर लिपटकर आराधना की और हाथी ने शिवलिंग को जल से स्नान करवाया था।
निर्माण कथा
श्री कालहस्ती मंदिर का निर्माण चोला वंश ने 5 वी शताब्दी में किया था। हालांकि 10 वी शताब्दी के दौरान चोला वंश के राजा महाराजा ने इस मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया, जिसमें चोला वंश के साथ-साथ विजयनगर के राजा महाराजा ने भी अपनी ओर से मदद की। वहीं नक्काशी में बना हुआ सौ स्तंभ वाला भवन भी राजा कृष्णदेवराय के शासनकाल में सन 1516 में बनवाया गया था।
इस जागृत मंदिर की कहानी
इस मंदिर को जागृत मंदिर भी कहा जाता है, लेकिन इससे जुड़ी एक कहानी भी है। कहा जाता है कि खुद भगवान शिव यहाँ प्रकट हुए थे। कहा जाता है कि एक दिन सभी लोग भगवान शिव के शिवलिंग की पूजा करने में व्यस्त थे तभी अचानक से भगवान के शिव लिंग से खून बहना शुरू हो गया। खून इतना बह रहा था की रुक ही नहीं रहा था, जिसको देखकर वहां खड़े सभी लोग डर गए। लेकिन वहां पर खड़े एक कन्नापा नाम के व्यक्ति ने इस नजारे को देखकर अपनी एक आँख निकालकर शिवलिंग के सामने रख दी और जैसे ही वह अपनी दूसरी आंख निकालने तभी खुद भगवान शिव वहा प्रकट हो गये और उन्होंने कन्नापा का ऐसा करने से रोका, बस तब से ही इस मंदिर में भगवान
शिव निवास करने लगे
इस मंदिर में शैव पंथ के नियमो का भी पालन किया जाता है। इस मंदिर के पुजारी प्रतिदिन भगवान की पूरे रस्मों, रिवाजों के साथ पूजा करते है और तो और यहां पूरे दिन में चार बार पूजा की जाती है, पहली सुबह 6 बजे कलासंथी दूसरी 11 बजे उचिकलम तीसरी 5 बजे सयाराक्शाई और आखिरी पूजा रात में 7:45 से 8:00 बजे के समय एक बार फिर सयाराक्शाई की पूजा की जाती है।
मंदिर की वास्तुकला
इस मंदिर के 120 फीट (37 मी) उँचाई वाला गोपुरम और 100 स्तंभों वाला विशाल आकर्षक मंडप भी राजा कृष्णदेवराय द्वारा ही सन 1516 में बनवाया गया था। वहीं सफेद पत्थर में बनवाई गयी भगवान शिव की मूर्ति शिवलिंग के ठीक सामने बनाई गयी है जो देखने में हाथी के सूंढ की तरह है
वैसे तो मंदिर दक्षिण की दिशा में है लेकिन मंदिर का पवित्र स्थान जो कि पश्चिम की दिशा में है। हालांकि यह मंदिर पहाड़ी के निचले हिस्से में बना है लेकिन कुछ लोगों का मानना है इस मंदिर को मोनोलिथिक पहाड़ी में ही बनवाया गया है और वहां पर पत्थर से बना हुआ 9 फीट विनायक का मंदिर भी है। यहां बहुत ही कम दिखने वाली वल्लभ गणपति, महालक्ष्मी गणपति, और सहस्र लिंगेश्वर की मूर्तिया है।
यही नहीं मंदिर में कासी विश्वनाथ, अन्नपूर्णा, सूर्यनारायण, सद्योगनपति और सुब्रमन्य की भी मुर्तिया देखने को मिलती है। और तो और बड़े बड़े सद्योगी मंडप और जल्कोती मंडप भी है। यहां पर सूर्य पुष्करानी और चन्द्र पुष्करानी नाम के दो बड़े से पानी के तालाब भी है।