शंकर जी बोले-हे उमा, कालकारमुख नामक एक भयानक बलवान राक्षस हुआ। ग्यारह मुख वाले उस विकराल राक्षस ने बहुत काल तक ब्रम्हा जी की कठोर ताप किया। उसके ताप से प्रसन्न हो कर ब्रह्मा जी ने कालकार मुख राक्षस से कहा-हे तात, मुझसे वर मांगो।
असुर बोला-हे कर्तार-आप मुझे ऐसा वर दीजिये-“मुझे कोई भी जीत न पावे, रण में सामने काल भी क्यों न हो! जो मेरे जनम की तिथि पर ग्यारह मुख धारण करे वही मुझे मारे “तथास्तु कहकर चतुरानन ब्रम्हा जी अन्तर्ध्यान हो गए।
वरदान पाकर अभिमानी असुर जगत में मनमानी करने लगा। उसने देवताओं के सभी अधिकार छीन लिए तथा श्रुतियों के सभी आचार भ्रष्ट कर दिए। संसार अति त्रस्त हो गया एवं अपार हाहाकार मच गया। सभी देहधारियो, देवताओं ने पुकारा-हे परमेश्वर…बचाओ, हे करुणा के घर सीतारमण जू हमारे क्लेश हरिये।
दोहा निशिचरपति के कंठ पुनि, झपटि गहेउ हनुमंत।
उदेउ गगन महँ ताहि ले, अतिशय वेग तुरंत।।
शिवजी कहते है कि-हे भवानी ! देवताओ की आर्त वाणी को सुनकर प्रभु रामजी ने हनुमान जी (Hanuman ji) से कहा-“हे-कपि ! महावीर! हनुमान। अतुलित बल,बुद्धि, तथा ज्ञान के निधान तुम्हारा नाम संकट मोचन है, उसे यथार्थ करो। धर्म भारी संकट में पड़ गया है उसे निस्तार करो।
प्रभु की आज्ञा सादर शिरोधार्य कर कपीश हनुमान जी ने एकादश मुख रूप ग्रहण करके, जगत में सुख की राशि बनकर चैत्र पूर्णिमा को शनिश्चर के दिन -उस राक्षस के जन्म तिथि एवं दिन के समय प्रकट हुए देवताओं को जय एवं सुख की शिला देने। यह सुनते ही असुर अपने संग विशाल सेना लिए दौड़ा। दुष्ट को देखकर कुपित हनुमंत जू तुरंत अनल के समान भभक उठे तथा क्षण में उन्होंने सभी खल-दल को नस्ट कर दिया, देखकर आकाश में देवता प्रफुल्लित हुए। फिर हनुमंत जू ने झपटकर राक्षसपति के कंठ पकडे और उसे लेकर तुरंत अतिशय वेग से गगन में उड़ गए।