धर्म-कर्म

Chhath Puja 2021: श्रद्धा भक्ति और लोक आस्था का प्रतीक महापर्व ‘छठ’

भारतीय संस्कृति के दो पहलू हैं- आध्यात्मिकता और पर्व त्यौहार। पर्व त्यौहार हमें एक दूसरे की परम्पराओं से जोड़े रहते हैं। आपसी प्रेम व् भाईचारे की भावना को सुदृढ़ करते हैं। त्यौहार हमारी गंगा यमुना तहजीब के प्रतीक हैं, हमारी संस्कृति के पोषक व रक्षक हैं। सूर्य षष्ठी व्रत छठ पूजा या डाला छठ पूजा […]

भारतीय संस्कृति के दो पहलू हैं- आध्यात्मिकता और पर्व त्यौहार। पर्व त्यौहार हमें एक दूसरे की परम्पराओं से जोड़े रहते हैं। आपसी प्रेम व् भाईचारे की भावना को सुदृढ़ करते हैं। त्यौहार हमारी गंगा यमुना तहजीब के प्रतीक हैं, हमारी संस्कृति के पोषक व रक्षक हैं।

सूर्य षष्ठी व्रत छठ पूजा या डाला छठ पूजा के आगमन की प्रतीक्षा वे लोग अति बेसब्री से करते हैं जिनके परिवार का कोई एक सदस्य इस च्रत को करता ह। इस महापर्व के आयोजन की तैयारियां दुर्गा पूजा के समाप्त होते ही शुरू हो जाती हैं। इस व्रत में ग्रहाधिपति सूर्य के साथ साथ षष्ठी माता की भी पूजा की जाती है। कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को मनाये जाने के कारण इसे छठ पूजा के नाम से भी जाना जाता है। एकमात्र यही एक पर्व है जिसकी पूजा की जाती है, वह सूर्य हमारे सम्मुख होता है। बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, मध्य प्रदेश और नेपाल के कुछ हिस्सों में इस पर्व का सर्वाधिक महत्व है। जैस-जैसे इन राज्यों से जीविकोपार्जन के लिए लोग देश या विदेश के जिन जगहों में गए इस महापर्व का वहां प्रचार  प्रसार होता गया। इस समय विदेशों में भी इस पर्व का आयोजन होते देखा जा रहा है।

कार्तिक महीने के शुक्लपक्ष की चतुर्थी तिथि से इस पर्व का श्रीगणेश हो जाता है और सप्तमी तिथि की सुबह उगते हुए सूर्य को अर्घ्य देने के साथ ही इसका समापन हो जाता है। व्रतधारी बिना अन्न जल ग्रहण किये पूजा-अर्चना व भजन-कीर्तन करते हैं। इस पर्व में साफ सफाई और पवित्रता का विशेष ध्यान रखा जाता है। इस महापर्व की सबसे बड़ी खासियत यह है कि यह पर्व अमीर-गरीब, ऊंच-नीच और जात-पात के भेदभाव को मिटाकर समानता का सन्देश देता है। सभी लोग सामूहिक रूप से इसका आयोजन करते हैं। इस पर्व के प्रति लोगों में गजब की आस्था देखी जाती है। लोग पारिवारिक सुख-शांति व् प्रगति के साथ-साथ मनोवांछित फल की प्राप्ति की कामना कर इस व्रत को करते हैं और उनकी मन्नत पूरी भी होती है। 

इस पर्व के प्रारंभ होने के विषय में कई मान्यताएं हैं। अयोध्या नरेश दशरथ पुत्र श्रीराम सूर्यवंशी थे। सूर्य उनके गुरु थे। लंका विजय के पश्चात् मर्यादा पुरुषोत्तम जब अयोध्या वापस आये तो राज सिंहासन पर आसीन होने के पूर्व उन्होंने भगवती सीताजी के साथ सरयू नदी में खड़े होकर सूर्य की पूजा की थी। अपने आदर्शवादी राजा को सूर्य की पूजा करते देख उनकी प्रजा ने भी सूर्य की उपासना करनी प्रारंभ कर दी। 

पांडव की पत्नी कुंती और दानवीर कर्ण महाभारत के प्रमुख पात्रों में से हैं। कौरव पुत्र दुर्याेधन ने कर्ण को अंग देश (वर्तमान बिहार का भागलपुर) का राजा बना दिया और उससे मित्रता कर ली। पिता होने के साथ-साथ सूर्य कर्ण के आराध्यदेव भी थे। वैसे तो कर्ण नियमित रूप से नदी में स्नान कर जल में खड़े होकर सूर्य की उपासना किया करते थे और याचकों को उनकी इच्छानुसार दान दिया करते थे, पर कार्तिक महीने के शुक्ल पक्ष की षष्ठी तिथि को वह विशेष पूजा किया करते थे। उनकी सूर्य पूजा से प्रभावित होकर उनकी प्रजा भी सूर्य की पूजा करने लगी। कहते है महाभारत युद्ध की समाप्ति के बाद द्रौपदी ने भी पांच पांडवों के सुस्वास्थ्य और दीर्घायु होने की कामना से सूर्य की पूजा की थी। सृष्टिकर्ता प्रजापति ब्रह्मा ने जब सृष्टि की रचना की होगी तब सर्वप्रथम सूरज, चाँद, सितारे और गृह-नक्षत्रों की रचना की होगी। कार्तिक महीने की रात्रि सर्वाधिक अंधकारमय होती है कहा जाता है कि इसी अन्धकार को विनष्ट करने के लिए सूर्य की रचना की गई होगी और उसके छठे दिन छठी मैया की पूजा की गई होगी।

छठ पूजा के दौरान व्रती चार दिन जमीन पर ही सोते हैं। चतुर्थी के दिन व्रतधारी आत्म शुद्धि के लिए शुद्ध सात्विक आहार ग्रहण करते हैं। इस दिन कुछ खास चीजें जैसे चावल, रोटी, चने की दाल, कद्दू की सब्जी ही आहार में लिया जाता है जिसमें प्याज, लहसुन आदि वर्जित होता है। पंचमी तिथि को दिन भर बगैर अन्न जल के व्यतीत करने के बाद शाम को खीर (गुड़ की) और रोटी और फल का भोग लगाकर प्रसाद के रूप में व्रती लेते हैं। इसके बाद ही परिवार के अन्य सदस्य आहार ग्रहण करते हैं। व्रती का उपवास फिर शुरू हो जाता है जो सप्तमी की सुबह में समाप्त होता है। आटा, गुड़ और घी से बना ठेकुआ के अलावा विभिन्न प्रकार के फल और मिष्ठान्न भी प्रसाद में शामिल रहता है। षष्ठी की शाम को व्रतधारी किसी नदी या सरोवर पर  जाते हैं और अस्ताचलगामी सूर्य को प्रथम अर्घ्य देते हैं। रात में कोसी भरने की प्रक्रिया पूरी की जाती है। चाहे घर हो या नदी या तालाब सर्वत्र छठ के मधुर गीत सुनाई देते है। पूजन स्थल को आकर्षक व मनोहारी तरीके से सजाया जाता है। सर्वत्र आनंद व उल्लास का माहौल रहता है।

सप्तमी तिथि को ब्रह्म मुहूर्त्त से पूजा स्थल पर लोग जमा होने लगते हैं। दर्शकों की तादाद भी कम नहीं होती। दर्शक पूजा के नज़ारे का अवलोकन करने के लिए घंटों खड़े होकर इन्तजार करते हैं। व्रतधारी महिलाएं गीत  के माध्यम से सूरज से ऊगने की गुहार लगाती हैं। प्रतीक्षा खत्म होती है। भगवान् भास्कर अपने आगमन की सूचना अपनी लालिमा से देते हैं। सूर्य को दूसरा अर्घ्य दिया जता है। महिलाये एक दूसरे को सिन्दूर लगाकर सुहागिन बनी रहने की दुआ करती है। प्रसाद का आदान-प्रदान करती हैं। मान्यता है कि जो लोग इस व्रत के आयोजन में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अपना सहयोग देते हैं, व्रती की सेवा करते हैं, अर्घ्य देते समय व्रतधारियों के अर्घ्य पात्र में जल, दूध या मिष्टान्न अर्पित करते है उनका भी कल्याण होता है, आशीर्वाद मिलता है। कुछ श्रद्धालु भक्त अपनी मन्नत पूरी हो जाने पर या मन्नत पूरी करने के लिए अपने घर से पूजा स्थल तक साष्टांग दंडवत की मुद्रा में जाते हैं। वहा स्नान कर देर तक जल में खड़े होकर आराधना करते हैं।

छठ महापर्व की महत्ता से प्रभावित होकर अन्य राज्य, विभिन्न भाषा-भाषी और सम्प्रदाय के लोग भी इस पूजा को मानने और करने लगे हैं। देश ही नहीं विदेशों में भी इस महापर्व ने अपने पैर पसार लिये हैं। एक कहावत है ऊगते हुए सूरज की पूजा सभी करते हैं पर ………..! छठ महापर्व इसका अपवाद है। क्योकि इस में ऊगते हुए और डूबते हुए सूर्य की पूजा की जाती है।

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