प्राचीन काल में धरती पर मानव कल्याण के लिए भगवान विष्णु (Bhagwan Vishnu) ने भक्त स्वरूप में कई हजार वर्षों तक महादेव शिव (Mahadev Shiv) की तपस्या की थी। तपस्या के दौरान उन्हें कोई कष्ट न हो और तपस्या में विघ्न न पड़े इसलिए देवी लक्ष्मी (Devi Laxmi) अपना आंचल उनके सिर पर डाले खड़ी रहीं। श्रीविष्णु शालिग्राम (Shrivishnu Shaligram) विग्रह में बदल गए और देवी लक्ष्मी बेर का पेड़ बन गईं। जब तपस्या पूरी हुई तब देवी के इस त्याग पर भगवान विष्णु ने कहा- कि आज से मुझे मेरे नहीं, आपके नाम से जाना जाएगा। संस्कृत में बद्री (बदरी) का अर्थ बेर होता है, इसलिए श्रीहरि बद्रीनाथ (Shrihari Badrinath) कहलाए।
दरअसल महादेव शिव और विष्णु दोनों एक-दूसरे के भक्त और आराध्य हैं, लेकिन इनके अलग-अलग पंथ भी हैं। जब श्रीहरि ने महादेव की तपस्या की तो उन्होंने प्रकट होकर कहा-आपकी ही ऊर्जा से तो मैं हूं। आप मेरे ही हृदय में हमेशा वास करते हैं। आज से यह स्थान इसी का प्रतीक बनेगा। दरअसल, बदरीनाथ धाम जिस जगह पर है, वह नीलकंठ पर्वत में ही आता है। पास से ही इस पर्वत का दिव्य शिखर दिखता है। नीलकंठ पर्वत महादेव का ही स्वरूप है। इसी पर्वत के हृदय में हैं बदरीनाथ ।
इस स्थान पर पहले महादेव का निवास था। तपस्या के लिए स्थान की खोज के लिए निकले हरि को यह स्थान पसंद आया, लेकिन यह तो उनके आराध्य का निवास है, इसलिए वह इसे नहीं ले सकते थे। तब भगवान विष्णु ने एक नन्हें बालक का रूप लेकर जोर-जोर से रोना शुरू कर दिया। यह सुनकर मां पार्वती के मन में ममता जाग गई और वह बालक को चुप कराने का प्रयास करने लगीं। तब उन्होंने सोचा कि इसे कुछ खिला कर सुला देंगे तो यह शांत हो जाएगा। भोलेनाथ समझ गए कि यह कौन हैं। उन्होंने मां पार्वती से कहा भी कि आप बालक को छोड़ दें, यह खुद ही चला जाएगा।
मां पार्वती नहीं मानी और उसे सुलाने के लिए भीतर लेकर चली गईं। जब बालक सो गया तो मां पार्वती बाहर आ गईं। इसके बाद श्री हरि ने भीतर से दरवाजे को बंद कर लिया और जब भोलेनाथ लौटे तो भगवान विष्णु ने कहा कि यह स्थान मुझे बहुत पसंद आ गया है। अब आप यहां से केदारनाथ चले जाएं, मैं इसी स्थान पर अपने भक्तों को दर्शन दूंगा। इस तरह शिवभूमि भगवान विष्णु का धाम बद्रीनाथ कहलाने लगा और भोलेनाथ केदारनाथ में निवास करने लगे।
मूर्ति स्थापना की कथा
यहां स्थापित उनकी मूर्ति शालिग्राम से निर्मित है। इसके बारे में कहा जाता है इसे आदि शंकराचार्य ने 8वीं शताब्दी में पास में स्थित नारद कुंड से निकालकर इसे स्थापित किया था। अन्य मंदिरों में श्रीहरि खड़ी मुद्रा में होते हैं। पद्मनाभ स्वामी में वह लेटी अवस्था में हैं, लेकिन इस मंदिर में श्रीहरि पद्मासन अवस्था में हैं।
यहां अखंड ज्योति भी जलती रहती है और नर-नारायण की भी पूजा होती है। साथ ही गंगा की 12 धाराओं में से एक धार अलकनंदा के दर्शन का भी फल मिलता है।
जब यहां श्रीहरि का धाम बना तो देवर्षि नारद ही प्राचीन काल में यहां पूजा करते थे। श्रीविग्रह उन्हीं का स्थापित किया था। पास ही बहते गर्म जल की धाराओं वाले कुंड को ही नारद कुंड कहते हैं। वह इसमें स्नान कर भगवान की पूजा करते थे। श्रीहरि के आदेशानुसार ही 6 महीने यहां मानव पूजा करते हैं और 6 मास तक देवता। यही विधि प्राचीन काल से अब तक चली आ रही है।