उड़ीसा के जगन्नाथ पुरी (Jagannath Puri) में भगवान भक्त माधव दास जी अकेले रहते और दिन भर भजन करते हुए जगन्नाथ प्रभु का दर्शन करते थे। उन्हें सखा मान उन्हीं के संग खेलते थे। एक बार माधव दास बीमार हुए और चारपाई पकड़ ली।
बहुत से लोग उनकी सेवा को आए परंतु वह बोले, अब तो महाप्रभु ही कुछ करेंगे। फिर क्या था, जगन्नाथजी स्वयंसेवक बनकर अपने भक्त की सेवा करने लगे, उनका मल मूत्र तक साफ करते। सेवा से माधव दास की बेहोशी टूटी और देखते ही पहचान कर बोले, “प्रभु आप तो त्रिभुवन के मालिक हो, स्वामी हो, आप मेरी सेवा कर रहे हो आप चाहते तो मेरा ये रोग भी तो दूर कर सकते थे, रोग दूर कर देते तो ये सब करना नही पड़ता”।
ठाकुर जी ने जवाब देखो माधव! मुझसे भक्तों का कष्ट नहीं सहा जाता, इसी कारण तुम्हारी सेवा की लेकिन जो प्रारब्द्ध है उसे तो भोगना ही पड़ता है। प्रभु ने आगे कहा, अब तुम्हारे प्रारब्द्ध में 15 दिन का रोग और बचा है, इसलिए 15 दिन का रोग तू मुझे दे दे। बस इतना कहते हुए प्रभु ने माधवदास की बीमारी ले ली। तब से भक्तवत्सल भगवान 15 दिन के लिए बीमार पड़ जाते हैं। इस दौरान उनकी रसोई बंद कर दी जाती है और भगवान को देखने नित्य वैद्य जी आते हैं। उनकी सलाह पर ही काढ़ा दिया जाता है 56 भोग नहीं।