धर्म-कर्म

जानिये क्यों किया परशुराम ने भगवान शिव से युद्ध!

एक पौराणिक कथा के अनुसार परशुराम (Parashuram) ने अपने गुरु महादेव शिव (Mahadev Shiv) से युद्ध किया था और उनके द्वारा दिए गए फरसे से उन्हें ही चोट पहुंचाई थी। जानिए यह कथा। भगवान विष्णु (Bhagwan Vishnu) के एक अवतार परशुराम ने समंतपंचका में अंतिम युद्ध लड़ा था और यहीं पर हजारों हैहयवंशी क्षत्रियों का […]

एक पौराणिक कथा के अनुसार परशुराम (Parashuram) ने अपने गुरु महादेव शिव (Mahadev Shiv) से युद्ध किया था और उनके द्वारा दिए गए फरसे से उन्हें ही चोट पहुंचाई थी। जानिए यह कथा।

भगवान विष्णु (Bhagwan Vishnu) के एक अवतार परशुराम ने समंतपंचका में अंतिम युद्ध लड़ा था और यहीं पर हजारों हैहयवंशी क्षत्रियों का वध किया था तथा उनके खून से पांच तालाब भर दिए थे। इसके बाद परशुराम जी (Parashuram) ने अपना रक्तरंजित परशु धोया एवं शस्त्र नीचे रखे थे। संहार और हिंसा से वे थक चुके थे। परशुराम ने 21 बार अभियान चला कर धरती के अधिकांश राजाओ को जीत लिया था।

बहुत से राजाओं ने उनसे भयभीत होकर उनकी शरण ले ली थी तो कुछ ने रनिवासों में छुपकर जान बचाई थी। कुछ राजाओं ने ब्राह्मणो के पास आश्रय लेकर उनकी कुटिया में छुपकर अपनी जान बचाई थी। पृथ्वी के सातों द्वीपों पर अब परशुराम का एकछत्र राज था। एक तरह से पूरी पृथ्वी क्षत्रियों से विहीन हो चुकी थी।

भूमण्डल के सभी राज्यों को जीत जाने के कारण परशुराम जी को अश्वमेध यज्ञ करने का अधिकार प्राप्त हो चुका था। ऐसे में उन्होंने पितरों को दिए अपने वचन को पूरा करने की सोची। खून से भरे तालाबों से निकलकर परशुराम ने अपने पितरों को अपने शत्रुओ के रक्त का अर्घ्य दिया तो उनके पूर्वज उनके सामने उपस्थित हुए और उन्होंने परशुराम जी की वीरता के सराहना करते हुए कहा की इतना क्रोध और हिंसा करना ठीक नहीं।

पितरों ने परशुराम को आदेश दिया कि तुम अपने इस कार्य का प्रयाश्चित करो। पहले इसका यज्ञ समापन करो, दान दो फिर तीर्थ यात्रा के बाद तप करो। परशुराम जी को यह भली भाति याद था।

परशुराम जी ने सबसे पहले विश्वविजेता तथा फिर अश्वमेध यज्ञ करने की ठानी। विश्वविजेता यज्ञ सम्पन्न कराने के बाद उन्होंने सबसे बड़े यज्ञ अश्वमेध्य की तैयारी शुरू कर दी। समूचे धरती के स्वामी का यज्ञ था तो इसे विशाल स्तर पर होना था।

अश्वमेध यज्ञ में सभी ऋषि मुनि तथा राजा आये। यज्ञ के मुख्य अतिथि ऋषि कश्यप थे। यज्ञ के सम्पन्न होने के बाद अब दक्षिणा देने की बारी थी। परशुराम ने यज्ञ पूरा होने के बाद सबसे पहले ऋषि कश्यप से पूछा कि उन्हें दक्षिणा में क्या चाहिए? ऋषि कश्यप चाहते थे कि परशुराम युद्ध से दूर रहे, क्योंकि उन्हें भय था की बचे-खुचे क्षत्रिय पुनः सक्रिय होंगे और यदि उन्होंने फिर से कुछ किया तो परशुराम फिर एक बार रक्तपात को सक्रिय हो जाएंगे।

कश्यप ने परशुराम से कहा की मुझे आप के द्वारा जीती हुई सारी धरती चाहिए। परशुराम जी ने सातों द्वीप वाली धरती कश्यप को दान कर दी। अब यज्ञ करने वाले शेष ब्राह्मणों को भी दक्षिणा देनी थी। समूची धरती तो कश्यप की हो चुकी थी तो उन्हें परशुराम क्या देते। कश्यप मुनि ने इसका समाधान निकाला और उन्होंने यज्ञ के लिए सोने से बने वैदिक को कई भागो में तोड़कर उन ब्राह्मण को दान दे दिए।

कश्यप ऋषि ने प्रसन्न होकर परशुराम को सिर्फ आशीर्वाद ही नहीं दिया बल्कि भगवान विष्णु का एक अमोघ मंत्र भी दिया। फिर कश्यप ऋषि परशुराम से बोले की तुमने अब यह पूरी धरती मुझे दान कर दी है, अतः तुम अब इस धरती में एक पल के लिए भी नहीं रह सकते। शीघ्र यहाँ से कहीं और चले जाओ। इसके बाद वह दक्षिण की ओर चले गए तथा सह्याद्री पर्वत से उन्होंने समुद्र में अपना फरसा फेंककर समुद्र से कहा कि समुद्र में जहां तक उनका फरसा गया है वहां तक समुद्र पीछे हट जाए।

परशुराम की बात मानकर समुद्र ने एक लंबा तटवर्ती क्षेत्र खाली कर दिया। भड़ौच से कन्याकुमारी तक के दान या भेंट में इस प्राप्त समुद्र तटीय क्षेत्रो को शुप्रारक कहा गया। चूंकि कश्यप ऋषि की आज्ञा के अनुसार एक दिन भी पृथ्वी पर नहीं रहना है। अतः परशुराम ने निर्णय लिया कि दिन में तो वे धरती पर रहेंगे परन्तु रात वे महेंद्र पर्वत पर गुजारेंगे। वे रात होने से पहले ही मन के वेग से महेंद्र पर्वत पर पहुंच जाते थे।

इसके साथ परशुराम नर अपनी अधूरी तीर्थ यात्रा फिर से शुरू की। यात्रा के समय जब परशुराम एक जगह पर विश्राम के लिए रुके तो उन्हें अपने गुरु भगवान शिव के वचन की याद आने लगी। जब परशुराम शिव से शिक्षा ग्रहण कर रहे थे तन भगवान शिव अपने शिष्य को परखने के लिए परशुराम की समय-समय पर परीक्षा लिया करते थे।

एक दिन भगवान शिव ने परशुराम की परीक्षा लेने के लिए नीति के विरुद्ध कुछ कार्य करने का आदेश दिया। पहले परशुराम को कुछ संकोच हुआ परन्तु फिर उन्होंने भगवान शिव से साफ़ साफ़ कह दिया कि वे वह कार्य नहीं करेंगे जो नीति के विरुद्ध हो। वह समझाने बुझाने से भी नहीं माने और महादेव शिव से ही भिड़ गए। भगवान शिव और परशुराम दोनों के मध्य भयंकर युद्ध छिड़ गया।

परशुराम ने पहले बाणों से भगवान शिव पर प्रहार किया जो शिव ने अपने त्रिशूल से काट डाले। अंत में अति क्रोधित परशुराम ने महादेव शिव पर उनके ही दिए फरसे से प्रहार कर दिया। चूंकि भगवान शिव को अपने अस्त्र का मान रखना था, इसलिए उन्होंने उस अस्त्र के प्रहार को अपने ऊपर ले लिया। भगवान शिव के मस्तिष्क पर बहुत गहरी चोट लगी। इसी कारण भगवान शिव का एक नाम खण्डपरशु भी पड़ा।

भगवान शिव ने परशुराम के फरसे के उस प्रहार का बुरा नहीं माना बल्कि परशुराम को अपने गले से लगा लिया और कहा अन्याय करने वाला चाहे कितना ही बड़ा क्यों न हो, धर्मशील व्यक्ति को अन्याय के विरुद्ध खड़ा होना चाहिए, यह उसका कर्तव्य है। संसार में अधर्म सहने से नहीं, मिटाने से मिटेगा। इसके बाद भगवान शिव ने नैतिक उपदेश देते हुए परशुराम से कहा कि केवल धर्म, तप, जप, दान, व्रत, उपवास धर्म के लक्षण नहीं है। अन्याय अधर्म से लड़ना भी धर्म साधना का एक हिस्सा है।