धर्म-कर्म

काला टीका: नजर लगने का रामचरित मानस व गीतावली रामायण में प्रसंग

एक बार किसी ने भगवान विष्णु से पूछ दिया-महाराज! आपने नारद के चरित्र में कलंक क्यों लगवा दिया? क्योंकि नारद जैसे महात्मा, जिन्होंने काम, क्रोध तथा लोभ तीनों को जीत लिया, पर बीच में आपने विश्वमोहिनी के चक्कर में उन्हें डाल दिया। भगवान बोले-बात यह है कि अगर बच्चा बहुत सुन्दर हो तो माँ को […]

एक बार किसी ने भगवान विष्णु से पूछ दिया-महाराज! आपने नारद के चरित्र में कलंक क्यों लगवा दिया? क्योंकि नारद जैसे महात्मा, जिन्होंने काम, क्रोध तथा लोभ तीनों को जीत लिया, पर बीच में आपने विश्वमोहिनी के चक्कर में उन्हें डाल दिया। भगवान बोले-बात यह है कि अगर बच्चा बहुत सुन्दर हो तो माँ को बड़ी चिन्ता होती है कि इसको कहीं नजर न लग जाय और नजर से बचाने के लिए माँ एक काला टीका तो अवश्य ही लगा देती है। इसी प्रकार मैंने भी देखा कि नारद ने तो काम, क्रोध, लोभ को जीत लिया है, अब बस इसको नजर लगने ही वाली है। नजर लगने का भी रामचरितमानस में भगवान राम के संदर्भ में बड़ा सांकेतिक अर्थ दिया गया है।

रामायण में वर्णन आता है कि नजर तीन तरह से लगती है। बालकाण्ड में लिखा है कि कौशल्या जी, सुमित्रा जी, और कैकेयी जी श्रीराम को देखने के पूर्व हाथ में एक तिनका ले लेती हैं और उस तिनके को तोड़ कर फिर श्रीराम को देखती हैं, सीधे श्री राम को नहीं देखती हैं। निरखहिं छबि जननी तृन तोरी।

किन्तु तिनके को पहले तोड़कर फिर श्रीराम को देखने का सीधा सा तात्पर्य है कि माताएँ सोचती हैं कि कहीं हमारी नजर श्रीराम को न लग जाय इसलिए तिनके पर ही सारी नजर का प्रभाव डालकर इसे ही कष्ट में डाल दो और श्रीराम की सुन्दरता को बचाओ। पर ‘गीतावली रामायण’ में गोस्वामीजी कहते हैं कि जब श्रीराम रोने लगे तो माताओं को लगा कि अवश्य किसी की नजर हमारे बालक को लग गई है। परन्तु किसकी लगी है ? तो उन्होंने विचार किया कि लगता है किसी बुरी स्त्री की नजर लग गई। किन्तु अब क्या किया जाय ? तो तुरन्त गुरु वसिष्ठ को सूचना दी गई। वसिष्ठ जी आए, और, उन्होंने श्रीराम को गोद में ले लिया तथा जो नजर बालक पर पड़ी थी उसे उतारकर उन्हें कौशल्या जी की गोदी में दे दिया। नजर उतरते ही बालक राम दूध पीने लगे।

नजर लगने के तीसरे एक विलक्षण रूप का गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘गीतावली रामायण’ में वर्णन करते हुए लिखा कि श्री राम एक दिन आँगन में खेल रहे थे, और आँगन में जो मणि का खम्भ बना था, अचानक उस ओर भगवान श्रीराम की दृष्टि गई। श्रीराम का प्रतिरूप जब उसमें दिखाई देने लगा तो श्री राम अपने रूप को देखकर इतने मग्न हो गए कि खेलना छोड़कर वे खम्भे की ही ओर देखने लग गए। यह दृश्य सुमित्रा अम्बा देख रही थीं। वे तुरन्त भागी हुई आयीं और आते ही उन्होंने सबसे पहले बालक राम की आँखों पर अपना हाथ रखकर उनकी आँखें बन्द कर दीं। माँ से किसी ने पूछ दिया कि आप श्री राम की आँखें क्यों बन्द कर रही हैं ? माँ ने कहा कि मुझे डर है कि कहीं श्रीराम को श्रीराम की ही नजर न लग जाय। तो भई ! नजर लगने वाली बात बड़ी अटपटी है। क्योंकि अपनों की नजर लग जाती है, औरों की लग जाती है तथा अपनी भी लग जाया करती है।

व्यवहार में हमारे-आपके जीवन में तीनों प्रकार की स्थिति आती है। अपनों की स्नेहभरी दृष्ठि भी लग जाती है,परायों की बुरी दृष्टि लग जाती है, पर सबसे बड़ी बात है कि कभी-कभी हमें अपनी ही दृष्टि लग जाती है कि हम कितने बड़े गुणवान हैं, हम बड़े श्रेष्ठ हैं और हम बड़े सुन्दर हैं। रामायण में इन तीनों दृष्टियों से बचने का उपाय बताया गया है।

भगवान से जब नारद के सन्दर्भ में भक्त ने प्रश्न किया तो भगवान ने कहा कि नारद को दोनों की ही दृष्टि लग गई। क्योंकि एक तो नारद को काम की दृष्टि लग गई। पर उससे भी बड़ा संकट तब पैदा हो गया जब उन्हें अपनी ही दृष्टि लगने लगी। जब नारद ने काम, क्रोध तथा लोभ को हरा दिया तो काम ने आकर चरणों में प्रणाम किया पर जाते-जाते वह नजर लगाता गया। काम ने कहा- महाराज ! आज तक बड़े-बड़े महात्मा उत्पन्न हुए पर आप जैसा कोई नहीं हुआ। किन्तु उसके बाद सबसे बड़ी बात यह हुई है कि काम का वाक्य सुनकर नारद जी अपने आप को देखकर सोचने लगे कि सचमुच मुझमें इतने अधिक गुण हैं। और तब भगवान ने काला टीका लगा दिया। उन्हें लगा की नारद के मन में अभिमान उत्पन्न हो गया कि मैं इतना चरित्रवान हूँ। मैं काम क्रोध और लोभ आदि का विजेता हूँ। भगवान ने कहा-नारद तो मेरा नन्हा बालक है। और जैसे बालक को नजर लग जाय तो वह रुग्ण हो जाता है तथा माँ उसकी रुग्णता को दूर करने की चेष्टा करती है, इसी प्रकार नारद को बचाने के लिए मैंने यह खेल किया। वस्तुतः विश्वमोहिनी के प्रति नारद के मन में जो आकर्षण उत्पन्न हुआ, उसके द्वारा मैंने नारद का अभिमान शिथिल कर दिया। बस, यही काला टीका है।

विद्या प्रतिष्ठा न धनं प्रतिष्ठा साऽप्यप्रतिष्ठा विनयव्यपेता । गुणा: प्रतिष्ठा न कुलं प्रतिष्ठा तेऽप्यप्रतिष्ठा यदि नात्मनिष्ठा ॥
विद्या से प्रतिष्ठा होती है, धन से प्रतिष्ठा नहीं । वह भी (विद्या) विनय के बिना अप्रतिष्ठा होती है। गुणों से प्रतिष्ठा है,कुल से प्रतिष्ठा नहीं। वे (गुण ) यदि आत्मनिष्ठ नहीं हैं तो अप्रतिष्ठा के कारण बनते हैं।

अपने मन को इतना मजबूत बनाये कि,किसी के भी व्यवहार से मन की शांति भंग न होने पाए!
सम्बन्ध”-मात्र एक शब्द नहीं,अपितु त्याग बलिदान और समर्पण से भरा सम्पूर्ण ग्रन्थ है।