हनुमानजी सप्तचिरंजीवों में से एक हैं । अर्थात सदैव जीवित रहने वाले । हनुमानजी ने त्रेतायुग में श्रीरामजी की अवतार समाप्ति के उपरांत भी द्वापार युग में महाभारत के युद्ध में सहभाग लिया था । उसके उपरांत कलियुग में संत तुलसीदासजी तथा समर्थ रामदास जी, इन संतों ने हनुमानजी के दर्शन किए हैं, ऐसा उल्लेख मिलता है । श्रीमद्भागवत में उल्लेख है कि कलियुग में हनुमानजी का निवास गंधमादन पर्वत पर रहता है । ऐसे कहा जाता है कि यह पर्वत हिमालय की श्रृंखलाओं में तिब्बत के आगे है।
हनुमान जी के दर्शन के संदर्भ में पुराणों में लिखा है कि –
’यत्र-यत्र रघुनाथ कीर्तन तत्र कृत मस्तकान्जलि।
वाष्प वारि परिपूर्ण लोचनं मारुतिं नमत राक्षसान्तक॥’’
अर्थात कलियुग में जहां-जहां भगवान श्रीराम की कथा-कीर्तन इत्यादि होते हैं, वहां हनुमानजी गुप्त रूप से विराजमान रहते हैं । यदि मनुष्य पूर्ण श्रद्घा से इनका आश्रय ले, तो फिर तुलसीदासजी की भांति उसे भी हनुमान और राम-दर्शन होने में देर नहीं लगती ।
कार्य व वैशिष्ट्य
सर्वशक्तिमान : हनुमानजी सर्वशक्तिमान देवता हैं । जन्म लेते ही हनुमानजी ने सूर्यको निगलनेके लिए उडान भरी । इससे यह स्पष्ट होता है कि, वायुपुत्र अर्थात वायुतत्त्व से उत्पन्न हनुमानजी, सूर्य पर अर्थात तेज तत्त्व पर विजय प्राप्त करने में सक्षम थे । पृथ्वी, आप, तेज, वायु एवं आकाश तत्त्वों में से तेजतत्त्व की तुलना में वायुतत्त्व अधिक सूक्ष्म है अर्थात अधिक शक्तिमान है । सर्व देवताओं में केवल हनुमानजी को ही अनिष्ट शक्तियां कष्ट नहीं दे सकतीं । लंका में लाखों राक्षस थे, तब भी वे हनुमानजी का कुछ नहीं बिगाड पाएं । इससे हम हनुमानजी की शक्ति का अनुमान लगा सकते हैं ।
जितेन्द्रिय : सीताजी को ढूंढने जब हनुमानजी रावण के अंतःपुर में गए, तो उस समय की उनकी मनःस्थिति उनके उच्च चरित्र का सूचक है । इस संदर्भ में वे स्वयं कहते हैं, ‘सर्व रावणपत्नियों को निःशंक लेटे हुए मैंने देखा; परंतु उन्हें देखने से मेरे मन में विकार उत्पन्न नहीं हुआ ।’ -वाल्मीकिरामायण, सुंदरकांड ११.४२-४३
इंद्रियजीत होने के कारण हनुमान जी रावणपुत्र इंद्रजीत को भी पराजित कर सके । तभी से इंद्रियों पर विजय पाने हेतु हनुमान जी की उपासना बताई गई ।
चिरंजीवी : अपने विभिन्न अवतारों में प्रभु श्रीराम तो वही रहते हैं, परंतु प्रत्येक अवतार में हनुमान का स्थान कोई और ले लेता है । हनुमान सप्तचिरंजीवों में से एक हैं, फिर भी चार युगों के अंत में ये सप्तचिरंजीव मोक्ष को प्राप्त होते हैं व इनका स्थान सात(आध्यात्मिक दृष्टि से) अति उन्नत व्यक्ति ले लेते हैं ।
बुद्धिमान : व्याकरणसूत्र, सूत्रवृत्ति, भाष्य, वार्तिक एवं संग्रह में हनुमान जी की बराबरी करनेवाला कोई नहीं था ।(श्रीवाल्मीकिरामायण, उत्तरकान्ड, सर्ग ३६, श्लोक ४४-४६) हनुमान को ग्यारहवां व्याकरणकार मानते हैं ।
मूर्तिविज्ञान
मारुति के विविध रूप हैं । जैसे दासमारुति, वीरमारुति, पंचमुखी मारुति पंचमुखी मारुति की मूर्ति बडे आकार की होती है । इसके पांच मुख होते हैं – गरुड, वराह, हयग्रीव अर्थात घोडा, सिंह एवं कपिमुख । ऐसी दशभुज मूर्तियों के हाथों में ध्वज, खडग, पाश इत्यादि शस्त्र होते हैं । पंचमुखी देवता का एक अर्थ ऐसा है कि, पूर्व, पश्चिम, दक्षिण एवं उत्तर, यह चार तथा ऊध्र्व अर्थात ऊपरी दिशा, इन पांचों दिशाओंपर उस देवता का स्वामित्त्व होता है ।
दक्षिणमुखी मारुति : इस मूर्ति का मुख दक्षिण की ओर अर्थात मूर्ति की दाहिनी ओर होता है, इसलिए इसे दक्षिणमुखी मारुति कहते हैं । दाहिनी ओर देखनेवाले मारुति की सूर्यनाड़ी कार्यरत होने के कारण उनसे शक्ति की अनुभूति होती है । इनकी उपासना अनिष्ट शक्तियों के निवारण के लिए की जाती है ।
वाममुखी मारुति : इस मूर्ति का मुख मूर्ति की बाईं ओर होता है, इसलिए इन्हें वाममुखी मारुति कहते हैं । वाममुखी मारुति की चंद्रनाडी कार्यरत रहती है । दक्षिणमुखी मारुति की तुलना में इनसे अल्प शक्ति की अनुभूति होती है ।
हनुमान जी की पूजा विधि : पूजापूर्व पूजक अपनी नाक के मूलपर मध्यमा से सिंदूर लगाए । हनुमानजी को अनामिका से चंदन लगाएं । इसके उपरांत सिंदूर चढाएं । सिंदूर चढाने के उपरांत अक्षत अर्पण करें । हनुमानजी को मदार के पुष्प एवं पत्ते चढाएं । पुष्प एवं पत्ते पांच या पांच के गुणांक में चढाएं । हनुमानजी को मदार के पुष्प एवं पत्तों से बनी माला पहनाएं । हनुमानजी की पूजा विधि में केवडा, चमेली या अंबर, इन उदबत्तियों का उपयोग करें । उदबत्ती की संख्या दो हो । दाहिने हाथ की तर्जनी अंगूठे के बीच उदबत्ती पकडकर घडी की सुइयों की दिशा में पूर्ण गोलाकार पद्धति से तीन बार घुमाएं । इसके उपरांत हनुमानजी को दीप दिखाएं । अंतमें हनुमानजी को नैवेद्य समर्पित करें । इस प्रकार पूजा करने के उपरांत आरती, मंत्रपुष्प, परिक्रमा एवं नमस्कार करें । हनुमानजी की अल्प से अल्प पांच या पांच की गुणा में परिक्रमाएं करें । स्थान के अभाव अथवा अन्य कारणवश परिक्रमा करना संभव न हो, तो अपने चारों ओर तीन बार गोल घूमकर परिक्रमा लगाएं ।
शनि की साढ़ेसाती व मारुती की पूजा : शनि की साढ़ेसाती दूर करने के लिए मारुती की पूजा की जाती है।
हनुमान जयंती अथवा हनुमान जन्मोत्सव : जयंती शब्द का शब्दकोश में अर्थ दिया है, किसी की जन्मतिथि पर मनाया जानेवाला उत्सव, जो प्रचलित है । जयंती देवता, संत एवं महापुरुषों की मनाई जाती है । हनुमानजी भी इस श्रेणी में आते हैं । हमें इस अर्थ का संदर्भ कहीं नहीं मिला कि जो संसार में नहीं है उसी की जयंती मनाई जाती है : जयंती अनेक देवताओं की भी मनाई जाती है । उदा. दत्त जयंती, वामन जयंती, परशुराम जयंती आदि । परशुराम भी श्री हनुमानजी के समान चिरंजीवी हैं, जिनकी जयंती मनाई जाती है । इसलिए, हनुमान जन्मोत्सव के स्थान पर हनुमान जयंती शब्दप्रयोग करना अधिक उचित होगा ।
हनुमान जी को घर में नहीं अपितु घर के बाहर रखना है क्या यह सही है ? – आज कहा जाता है – ‘शास्त्रात् रुढिर्बलियसी’ ! धर्मशास्त्र के अज्ञान के कारण ऐसे अनेक अयोग्य विचार, रुढियां समाज में पनप रही हैं । हनुमानजी को घर में नहीं रखना, भगवान श्रीकृष्ण का महाभारत का चित्र घर में नहीं रखना, सुदर्शन चक्र वाला चित्र घर में नहीं रखना, यह सब अंधविश्वास की बातें हैं । दुःख की बात है कि एक ओर तो हम चीनी मेंढक, लाफिंग बुद्धा तथा दौडने वाले 7 घोडों का चित्र हम घर में रख रहे हैं, तो दूसरी ओर अपने ही देवी-देवताओं को घर से बाहर निकाल रहे हैं । कई बार हमारे धर्मविरोधी भी इस प्रकार प्रचार करके हमारे धर्म के संदर्भ में गलत धारणाओं को फैलाने का कार्य करते हैं । हमें इससे बचकर रहना चाहिए ।
महावीर हनुमान को भगवान शिव का 11वा रूद्र अवतार कहा जाता है और वह प्रभु श्रीराम के अनन्य भक्त हैं। हनुमानजी ने वानर जाति में जन्म लिया उनकी माता का नाम अंजना और उनके पिता का नाम वानर राज केसरी है। इसी कारण इन्हें आंजनाय और केसरी नंदनाय आदि नामों से भी पुकारा जाता है।
वहीं दूसरी मान्यता के अनुसार हनुमानजी को पवन पुत्र भी कहते हैं। हनुमान जी के जन्म के पीछे पवन देव का योगदान है ।
एक बार अयोध्या नरेश चक्रवर्ती महाराजा दशरथ अपनी पत्नियों के साथ पुत्रेष्टि यज्ञ का हवन कर रहे थे ।यह हवन पुत्र प्राप्ति के लिए किया जा रहा था। हवन समाप्ति के बाद गुरुदेव ने प्रसाद की खीर आशीर्वाद स्वरूप तीनों रानियों को थोड़ी-थोड़ी बांट दी।
खीर का एक भाग कौवा अपने साथ एक जगह ले गया जहां अंजनी माता तपस्या कर रही थी ।यह सब भगवान शिव और वायु देव की इच्छा से हो रहा था। तपस्या करती हुई अंजना के हाथ में जब खीर आई तो उन्होंने उसे भगवान शिव का प्रसाद समझकर ग्रहण कर लिया।
यही हनुमान जी के जन्म का माध्यम बना। श्री हनुमान जी का जन्म ज्योतिषीय गणना के अनुरूप चौत्र पूर्णिमा को मंगलवार के दिन चित्रा नक्षत्र व मेष लग्न के योग में हुआ था।