धर्म-कर्म

Bilai Mata Mandir: ऊपर ही उठती जा रही हैं जमीन से निकली माँ की मूर्ति

Bilai Mata Mandir: छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) के धमतरी (Dhamtari) जिले में स्थित बिलाई माता मंदिर (Bilai Mata Mandir) जिसे विंध्यवासिनी मंदिर (Vindhyavasini Mandir) भी कहा जाता है, यह एक प्रसिद्ध हिंदू मंदिर है, जो देवी दुर्गा (Devi Durga) को समर्पित है। यह एक प्राचीन मंदिर है, जिसे राज्य के पांच शक्तिपीठों (Shaktipeeth) में से एक माना […]

Bilai Mata Mandir: छत्तीसगढ़ (Chhattisgarh) के धमतरी (Dhamtari) जिले में स्थित बिलाई माता मंदिर (Bilai Mata Mandir) जिसे विंध्यवासिनी मंदिर (Vindhyavasini Mandir) भी कहा जाता है, यह एक प्रसिद्ध हिंदू मंदिर है, जो देवी दुर्गा (Devi Durga) को समर्पित है। यह एक प्राचीन मंदिर है, जिसे राज्य के पांच शक्तिपीठों (Shaktipeeth) में से एक माना जाता है। मंदिर की दीवारों पर की गई नक्काशी पहले के समय की स्थापत्य कला को दर्शाती है। पौराणिक कथा के अनुसार, मां विंध्यवासिनी की मूर्ति जमीन से निकली है जो धीरे-धीरे अभी भी उठ रही है।

बिलाई माता मंदिर धमतरी के नए बस स्टैंड से दो किलोमीटर दूर स्थित इसे स्वयं-भू विंध्यवासिनी माता कहते हैं। स्थानीय लोगों की मान्यता है की मंदिर में स्थित मूर्ति धरती चीरकर निकली है जो अभी भी लगातार उपर की और आ रही है।

बिलाई माता मंदिर में केवल एक घी की ज्योत जलाई जाती है। नवरात्रि के दौरान गर्भगृह में दो ज्योत जलाई जाती हैं। मंदिर की प्रसिद्धि दूर-दूर तक विदशों में भी फैली हुई है, यहां दूसरे देश के लोग भी ज्योत जलाने के लिए पहुंचते हैं।

माता के दरबार में हमेशा ही भक्तों की भीड़ लगी रहती है, लेकिन नवरात्रि के दौरान लाखों की संख्या में भक्त माता का आशीर्वाद लेने के लिए मंदिर जाते हैं। ऐसा माना जाता है की सच्चे मन से की गई कोई भी मनोकामना मां अवश्य पूर्ण करती है।
पहले 108 बकरे की बलि दी जाती थी

इस मंदिर में सालों पहले नवरात्रि के दौरान 108 बकरों की बलि दी जाती थी। राजा नरहर देव के शासनकाल से बकरों की बलि प्रथा की शुरुआत की गई थी। वर्ष 1938 के आसपास इस प्रथा को समाप्त कर दिया गया, तब से लेकर अब तक बलि के रूप कच्चे कद्दू को चढ़ाया जाता है

पौराणिक कथाएं
स्थानीय लोगों में प्रचलित कथाओं के अनुसार वर्तमान में जहां आज देवी का मंदिर है आदिकाल में वहां घनघोर जंगल हुआ करता था। राजा मांडलिक अपने सैनिकों के साथ एक बार इसी जंगल में गए। इस स्थान पर आते ही घोड़े ठिठक गए। इसके चलते राजा को वापस लौटना पड़ा। दूसरे दिन भी यही घटना हुई। घोड़े उसी स्थान पर आकर रुक गए, तब राजा ने सैनिकों को जंगल में और अंदर जाकर देखने का आदेश दिया। सैनिकों ने जब जंगल में खोजबीन की तो उन्होंने देखा कि एक पत्थर के चारों ओर जंगली बिल्लियां बैठी हैं।

जब राजा को इसकी सूचना दी गई तो राजा ने बिल्लियों को भगाकर उस पत्थर को प्राप्त करने का आदेश दिया। चमकदार व आकर्षक पत्थर जमीन के अंदर तक धंसा हुआ था। काफी प्रयास के बाद भी पत्थर बाहर नहीं निकला। इस दौरान उस स्थान से जलधारा निकलना प्रारंभ हो गया। खुदाई को दूसरे दिन के लिए रोक दिया गया। उसी रात्रि देवी मां राजा के सपने में आई और कहा-पत्थर को उस स्थान से न निकालें और पूजा पाठ करना शुरू करें, जो लोगों के लिए कल्याणकारी होगा।

सपने में मां से मिले आदेश के बाद राजा ने उस स्थान पर चबूतरे का निर्माण कराकर देवी की स्थापना करा दी। कालांतर में इसे मंदिर का स्वरूप दे दिया गया। लोगों का मानना है कि मंदिर में पत्थर अधिक ऊपर नहीं आया था। प्राण प्रतिष्ठा के बाद देवी की मूर्ति स्वयं ऊपर उठी।

जन-मानस में विन्ध्यवासिनी देवी के प्रादुर्भाव पर आधारित एक और भी कथा इस प्रकार है। एक बार नगर के कुछ घसियारे घांस काटने के लिए दक्षिण दिशा की ओर गये और उस झाड़ी में प्रविष्ट हुए जहां विन्ध्यवासिनी देवी अज्ञात रूप से अधिष्ठित थी।

घसियारों ने देखा कि एक श्यामवर्ण पत्थर के दोनों ओर बैठी दो बिल्लियां उनकी आहट पाकर गुर्रा रही हैं। घसियारे किसी तरह अपने हंसिये दिखाकर उन बिल्लियों को भगाने में सफल हो गये। उसके बाद उस पत्थर पर रगड़ कर उन लोगों ने अपने हंसिये पैने किये। फिर वे घास कांटने में जुट गये। अल्प समय में ही उन्होंने पर्याप्त घास काट ली। आश्चर्य की बात यह रही कि उनके हंसियों की धार ज्यों की त्यों बनी रही। घसियारे इस रहस्य को जान सकने में असमर्थ थे। वे घर लौट आये। उस दिन उन्हें घास की बिक्री से पिछले दिनों की अपेक्षा अधिक मूल्य प्राप्त हुआ।

रात के समय सपने में उस घसियारों को बोध हुआ कि जिसे मामूली पत्थर समझकर उन लोगों ने अपने हंसिये की धार तेज की थी वह तो विन्ध्यवासिनी देवी है। प्रातः काल उन लोगों ने अपनी यह स्वप्न कथा राजा तथा प्रमुख नागरिकों को कह सुनाई। इसके बाद सबके समवेत प्रयत्नों से वह स्थान पूजा का केन्द्र बन गया।

देवी के प्रादुर्भाव के संबंध में तीसरी कथा इस प्रकार है कि बहुत पहले यहां आदिवासी जातियां निवास करती थी। जिनमें एक जाति बैगा कहलाती थी। ये पक्षियों को पकड़कर तथा बेचकर जीवन निर्वाह करते थे।

एक बार कुछ लड़के चिड़िया पकड़ने की गरज से उसी झाड़ी में प्रविष्ट हुए जहां एक श्यामवर्ण प्रस्तर के आजू-बाजू दो बिल्लियां बैठी गुर्रा रही थी। लड़के ने पता नहीं क्यों भावुकता से वशीभूत होकर कहा कि हे बिलाई माता, आज हम अगर तुम्हारी कृपा से अधिक पक्षी पकड़ने में सफल हुए तो हम अपने में से किसी एक का बलिदान तुम्हारे नाम कर देंगे। देवी की कृपा से सचमुच उस दिन लड़कों ने अधिक पक्षी पकड़े।

प्रसन्न मन से जब वह घर लौट रहे थे तो एक लड़के को बलिदान की बात स्मरण हो आयी मगर बलिदान के लिए कोई तैयार नहीं हुआ। तब एक चतुर लड़के ने कहा कि सचमुच बलिदान न देकर हम वचन का निर्वाह प्रतीकात्मक बलिदान करके कर सकते हैं। ऐसा कहकर उस लड़के ने चिड़िया का एक पंख हाथ में लेकर उसे छूरी की तरह अपनी गर्दन पर फिराया और कहा-मैं बलिदान हो रहा हूँ।

तभी चमत्कार हुआ। पंख के स्पर्श से ही उस लड़के की गर्दन कट गई। सिर धड़ से अलग हो गया। उसके सब साथी भयभीत होकर देखते ही रह गये। किसी को कुछ सूझ नहीं रहा था। तभी आकाशवाणी हुई कि लड़के का सिर और धड़ एक साथ रखकर उसे सफेद कपड़े से ढंक दिया जाये। लड़कों ने वैसा ही किया। देवी के आशीर्वाद से वह लड़का जी उठा। बस फिर क्या था विद्युत गति से यह बात सारे नगर में फैल गई।

राजा ने जब यह बात सुनी तो उसे भी कम आश्चर्य नहीं हुआ। देवी के प्रति उसके मन में अगाध श्रद्धा उमड़ आयी और उनके चारों ओर एक चबूतरा बनवाकर देवी के पूजन-अर्चन का मार्ग सबके लिए प्रशस्त कर दिया।

कहीं-कहीं लोक विश्वास इन तीनों घटनाओं को एक ही दिन में घटित मानता है। घटना घसियारों द्वारा घास कांटने की पहले ही घटी होगी। मध्यान्ह के बाद पक्षी पकड़ने वाले लड़को के साथ चमत्कार हुआ होगा। तभी इनके सम्मिलित आग्रह एवं प्रयास से देवी की सुखद स्थापना अविलम्ब हुई।
बिलाई माता नाम के पीछे की कहानी

इस मंदिर को बिलाई माता मंदिर कहे जाने के पीछे भी रोचक कहानी है। जब पहली बार राजा के सैनिकों ने इस मूर्ति को देखा था तब उसके आसपास काली बिल्लियाँ देखी गई थीं इनके अलावा मूर्ति भी काली थी, इसलिए लोग इसे बिलाई माता कहने लगे जो आज भी प्रचलन में है।