माघ के महीने में आने वाली पूर्णिमा की रात/चन्द्र रात्रि या पूर्णिमा जिसे माघ पूर्णिमा के नाम से जाना जाता है। इस बार, माघ पूर्णिमा का शुभ पर्व शनिवार यानि 27 फरवरी, 2021 को मनाया जाएगा। ग्रेगोरियन कैलेंडर के अनुसार, माघ पूर्णिमा जनवरी या फरवरी में आती है। इस दिन, भक्त एक दिन का उपवास रखते हैं और वे चंद्रमा को देखने के बाद उपवास तोड़ते हैं। इस दिन भक्त चंद्रमा की पूजा भी करते हैं।
माघ पूर्णिमा 2021 की शुभ तिथि?
माघ पूर्णिमा की शुभ तिथि 26 फरवरी को दोपहर 3.49 बजे शुरू होगी और यह 27 फरवरी 2021 को दोपहर 1.26 बजे समाप्त होगी।
माघ पूर्णिमा का महत्व
माघ पूर्णिमा के शुभ दिन पर, भक्तों को सूर्योदय से पहले स्नान करना चाहिए। यह भी माना जाता है कि यदि भक्त इस दिन पवित्र गंगा नदी में डुबकी लगाते हैं, तो उन्हें अपने पापों से छुटकारा मिलता है। श्रद्धालु पवित्र नदी में डुबकी लगाने के लिए इस दिन हरिद्वार, प्रयागराज जैसे तीर्थ स्थलों पर जाते हैं। भारतीय पौराणिक कथाओं के अनुसार, यह माना जाता है कि भगवान विष्णु स्वयं इस दिन गंगा नदी में मौजूद हैं, और जो लोग इस विशेष दिन में पवित्र नदी में डुबकी लगाते हैं, वे सभी परेशानियों से छुटकारा पा सकते हैं। इस बार, माघ पूर्णिमा और भी अधिक शुभ है क्योंकि हरिद्वार में महाकुंभ मेला मनाया जा रहा है, और भक्त भगवान विष्णु और नदी गंगा के लिए अपनी प्रार्थना करते हैं।
पूर्णिमा के दिन भक्त व्रत रखकर पूजा-पाठ करते हैं और भगवान सत्यनारायण की कथा सुनते हैं। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार, माघी पूर्णिमा व्रत करने एवं सत्यनारायण भगवान की कथा सुनने से सुख, संपत्ति और ऐश्वर्य की प्राप्ति होती है। आइए माघी पूर्णिमा व्रत में पढ़ते हैं सत्यनारायण भगवान की कथा…
सत्यनारायण व्रत कथा
पौराणिक कथा के अनुसार, प्राचीन समय की बात है एकबार विष्णु भक्त नारद जी ने भ्रमण करते हुए मृत्युलोक के प्राणियों को अपने-अपने कर्मों के अनुसार तरह-तरह के दुखों से परेशान होते देखा। इससे उनका संतहृदय द्रवित हो उठा और वे वीणा बजाते हुए अपने परम आराध्य भगवान श्रीहरि की शरण में हरि कीर्तन करते क्षीरसागर पहुंच गये और स्तुतिपूर्वक बोले, ‘हे नाथ! यदि आप मेरे ऊपर प्रसन्न हैं तो मृत्युलोक के प्राणियों की व्यथा हरने वाला कोई छोटा-सा उपाय बताने की कृपा करें।’ तब भगवान ने कहा, ‘हे वत्स! तुमने विश्वकल्याण की भावना से बहुत सुंदर प्रश्न किया है। अतः तुम्हें साधुवाद है। आज मैं तुम्हें ऐसा व्रत बताता हूं जो स्वर्ग में भी दुर्लभ है और महान पुण्यदायक है तथा मोह के बंधन को काट देने वाला है और वह है श्रीसत्यनारायण व्रत। इसे विधि-विधान से करने पर मनुष्य सांसारिक सुखों को भोगकर परलोक में मोक्ष प्राप्त कर लेता है।’
इसके बाद काशीपुर नगर के एक निर्धन ब्राह्मण को भिक्षावृत्ति करते देख भगवान विष्णु स्वयं ही एक बूढ़े ब्राह्मण के रूप में उस निर्धन ब्राह्मण के पास जाकर कहते हैं, ‘हे विप्र! श्री सत्यनारायण भगवान मनोवांछित फल देने वाले हैं। तुम उनके व्रत-पूजन करो जिसे करने से मुनष्य सब प्रकार के दुखों से मुक्त हो जाता है। इस व्रत में उपवास का भी अपना महत्व है किंतु उपवास से मात्र भोजन न लेना ही नहीं समझना चाहिए। उपवास के समय हृदय में यह धारणा होनी चाहिए कि आज श्री सत्यनारायण भगवान हमारे पास ही विराजमान हैं। अतः अंदर व बाहर शुचिता बनाये रखनी चाहिए और श्रद्धा-विश्वासपूर्वक भगवान का पूजन कर उनकी मंगलमयी कथा का श्रवण करना चाहिए।’ सायंकाल में यह व्रत-पूजन अधिक प्रशस्त माना जाता है।
साधु वैश्य ने भी यही प्रसंग राजा उल्कामुख से विधि-विधान के साथ सुना, किंतु उसका विश्वास अधूरा था। श्रद्धा में कमी थी। वह कहता था कि संतान प्राप्ति पर सत्यव्रत-पूजन करूंगा। समय बीतने पर उसके घर एक सुंदर कन्या ने जन्म लिया. उसकी श्रद्धालु पत्नी ने व्रत की याद दिलायी तो उसने कहा कि कन्या के विवाह के समय करेंगे।
समय आने पर कन्या का विवाह भी हो गया किंतु उस वैश्य ने व्रत नहीं किया. वह अपने दामाद को लेकर व्यापार के लिए चला गया। उसे चोरी के आरोप में राजा चन्द्रकेतु द्वारा दामाद सहित कारागार में डाल दिया गया। पीछे घर में भी चोरी हो गयी. पत्नी लीलावती व पुत्री कलावती भिक्षावृत्ति के लिए विवश हो गयीं। एक दिन कलावती ने किसी विप्र के घर श्री सत्यनारायण का पूजन होते देखा और घर आकर मां को बताया. तब मां ने अगले दिन श्रद्धा से व्रत-पूजन कर भगवान से पति और दामाद के शीघ्र वापस आने का वरदान मांगा। श्रीहरि प्रसन्न हो गये और स्वप्न में राजा को दोनों बंदियों को छोडने का आदेश दिया. राजा ने उनका धन-धान्य तथा प्रचुर द्रव्य देकर उन्हें विदा किया। घर आकर पूर्णिमा और संक्रांति को सत्यव्रत का जीवन पर्यन्त आयोजन करता रहा, फलतः सांसारिक सुख भोगकर उसे मोक्ष प्राप्त हुआ।
इसी प्रकार राजा तुंगध्वज ने वन में गोपगणों को श्री सत्यनारायण भगवान का पूजन करते देखा, किंतु प्रभुता के मद में चूर राजा न तो पूजास्थल पर गया, न दूर से ही प्रणाम किया और न ही गोपगणों द्वारा दिया प्रसाद ग्रहण किया। परिणाम यह हुआ कि राजा के पुत्र, धन-धान्य, अश्व-गजादि सब नष्ट हो गये। राजा को अकस्मात् यह आभास हुआ कि विपत्ति का कारण सत्यदेव भगवान का निरादर है। उसे बहुत पश्चाताप हुआ। वह तुरंत वन में गया. गोपगणों को बुलाकर काफी समय लगाकर सत्यनारायण भगवान की पूजा की। फिर उसने उनसे ही प्रसाद ग्रहण किया तथा घर आ गया। उसने देखा कि विपत्ति टल गयी और उसकी सारी संपत्ति तथा जन सुरक्षित हो गये। राजा प्रसन्नता से भर गया और सत्यव्रत के आचरण में निरत हो गया तथा अपना सर्वस्व भगवान को अर्पित कर दिया।
(Disclaimer: इस लेख में दी गई जानकारियां और सूचनाएं मान्यताओं पर आधारित हैं। लाटसाब इनकी पुष्टि नहीं करता है। इन पर अमल करने से पहले संबंधित विशेषज्ञ से संपर्क करें।)
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