छत्तीसगढ़

राष्ट्रीय आदिवासी नृत्य महोत्सव: गोंडों के परम्परागत लोक नृत्य

रायपुर:आदिवासी समुदाय प्रकृति प्रेमी होते हैं। उनकी जीवनशैली सरल और सहज होती है। इसकी स्पष्ट छाप उनकी कला, संस्कृति, सामाजिक उत्सवों और नृत्यों में देखने को मिलती है। प्रकृति से जुड़ा हुआ यह समुदाय न केवल उसकी उपासना करता है, बल्कि उसे सहेजकर भी रखता है। ऐसा ही एक समुदाय गोंड़ जनजाति है। जिसकी कई […]

रायपुर:आदिवासी समुदाय प्रकृति प्रेमी होते हैं। उनकी जीवनशैली सरल और सहज होती है। इसकी स्पष्ट छाप उनकी कला, संस्कृति, सामाजिक उत्सवों और नृत्यों में देखने को मिलती है। प्रकृति से जुड़ा हुआ यह समुदाय न केवल उसकी उपासना करता है, बल्कि उसे सहेजकर भी रखता है। ऐसा ही एक समुदाय गोंड़ जनजाति है। जिसकी कई उपजातियां हैं। जिनके रीति-रिवाजों में लोक जीवन के अनेक रंग देखने को मिलते हैं। 

धुरवा जनजाति गोंड जनजाति की उपजाति है। धुरवा जनजाति छत्तीसगढ़ राज्य के बस्तर, दंतेवाडा तथा सुकमा जिले में निवास करती है। बांस के बर्तन एवं सामग्री बनाने में दक्षता के कारण धुरवा जनजाति को ‘बास्केट्री ट्राइब‘ अर्थात ‘बांस का कार्य‘ करने वाली जनजाति की संज्ञा दिया गया है। सन् 1910 के बस्तर के प्रसिद्ध (आदिवासी विद्रोह ‘भूमकाल के नायक शहीद वीर गुण्डाधुर की सेना द्वारा मड़ई नृत्य के माध्यम से अपनी भावना जनसामान्य तक पहुंचाने के लिए इसे मेला मड़ई मंे प्रदर्शित करते थे।

धुरवा युवक-युवतियां वीर रस से परिपूर्ण होकर मड़ई नृत्य करते हैं, पुरूष हाथ में  कुल्हाडी एवं मोरपंख का गुच्छा (मंजूरमूठा) लेकर उंगली से मुंह से सुईक-सुईक की आवाज निकाल कर दुश्मनों को ललकारते हुए नृत्य करते है। युवतियां-युवकों के पीछे-पीछे लय मिलाते हुए सामूहिक रूप में नृत्य करती हैं। नृत्य के दौरान हाथ में मोर पंख का गुच्छा (मंजूरमूठा) रखते हैं।

मुरिया जनजाति छत्तीसगढ़ राज्य के दक्षिण मंे स्थित बस्तर संभाग में निवास करती है। मुरिया जनजाति गोड़ जनजाति की उपजाति हैं। मुरिया जनजाति के तीन उपभाग- राजा मुरिया, झोरिया मुरिया तथा घोटूल मुरिया होते है। रसेल एवं हीरालाल के ग्रंथ द टाइब्स एंड कास्टस ऑफ द सेन्टल प्रोविसेंस ऑफ इंडिया भाग-3, 1916 के अनुसार बस्तर के गोंड, मुरिया एवं माडिया दो समूह में बंटे हुए है। मुरिया शब्द की व्युत्पत्ति ‘मूर‘ अर्थात बस्तर के मैदानी क्षेत्रों में पाये जाने वाले पलाश वृक्ष या ‘मुर‘ अर्थात जड़ शब्द से हुई है‘‘। एक अन्य मान्यता के अनुसार ‘मूर‘ अर्थात ‘मूल‘ निवासी को मुरिया कहा जाता है। 

‘मड़ई लोक-नृत्य‘
वर्तमान में ग्राम देवी की वार्षिक, त्रि-वार्षिक पूजा के दौरान मड़ई नृत्य करते हैं, इसमें देवी-देवता के जुलूस के सामने मड़ई नर्तक दल नृत्य करते है एवं पीछे-पीछे देवी-देवता की डोली, छत्रा, लाट आदि प्रतीकों को जुलूस रहता है। मड़ई के अगले दिन मड़ई नर्तक दल ग्राम के सभी घरों में जाकर मड़ई नृत्य करते हैं, जिसे ‘बिरली‘ कहते हैं। ग्रामवासी मड़ई नर्तक दल को धान, महुआ और रूपए देते हैं। नृत्य के समापन के पश्चात ग्राम के मुखिया के साथ नर्तक दल भोज करता है और खुशियां मनाता हैं। नृत्य में धुरवा पुरूष सफेद शर्ट, काला हाफ कोट, धोती या घेरेदार लहंगा के साथ कपड़े मंे सिला हुआ कमर बंद या सिर में तुराई, पेटा (पगड़ी), मोर पंख, तुस (कपड़े से बनी पतली पट्टी), गले में विभिन्न प्रकार की मालाएं, पैरों में झाप (रस्सी में बंधा हुआ घुंघरू) का श्रृंगार करते हैं।

महिलाएं ब्लॉउज तथा पाटा, साड़ी पहनती हैं। बालों के खोंसा (जूडे़ में) कांटा, पनिया (बांस की कंघी), गले में चीप माला, सूता तथा बाजार में मिलने वाली विभिन्न प्रकार की मालाएं, कान में खिलवां, बांह में बांहटा, कलाई मंे झाडू तथा पैरों में पायल धारण करती हैं। मड़ई नृत्य वाद्य यंत्र हेतु ढोल, तुडबुड़ी, बांसुरी, किरकिचा, टामक, जलाजल, तोड़ी का उपयोग किया जाता है। नृत्य का प्रदर्शन मेला-मड़ई, धार्मिक उत्सव तथा मनोरंजन अवसर पर किया जाता है। 

‘‘विवाह नृत्य‘‘
धुरवा जनजाति विवाह के दौरान विवाह नृत्य करते हैं। विवाह नृत्य वर-वधू दोनों पक्ष में किया जाता है। विवाह नृत्य तेल-हल्दी चढ़ाने की रस्म से प्रारंभ कर पूरे विवाह में किया जाता है। इसमें पुरूष और स्त्रियां समूह मंे गोल घेरा बनाकर नृत्य करते हैं। पुरूष सफेद शर्ट, काला हाफ कोट, धोती या घेरेदार लहंगा के साथ कपड़े में सिला हुआ कमर बंद या सिर में तुराई, पेटा (पगड़ी), मोर पंख, तुस (कपड़े से बनी पतली पट्टी), गले में विभिन्न प्रकार की मालाएं, पैरों में झाप (रस्सी में बंधा हुआ घुंघरू) का श्रृंगार करते हैं।

महिलाएं ब्लॉउज तथा पाटा, साड़ी पहनती है बालों के खोंसा (जूड़े में) कांटा, पनिया (बांस की कंघी), गले में चीप माला, सूता तथा बाजार में मिलने वाली विभिन्न प्रकार की मालाएं, कान में खिलवां, बांह में बांहटा, कलाई में झाडू तथा पैरों में पायल का श्रृंगार करती है। नृत्य के दौरान हाथ में मोरपंख का गुच्छा (मंजूरमूठा) रखती हैं। मड़ई नृत्य में ढोल, तुडबुड़ी, बांसुरी, किरकिचा, टामक, जलाजल, वाद्ययंत्रों का प्रयोग किया जाता है। नृत्य विवाह के अवसर पर तथा मनोरंजन हेतु किया जाता है। 

‘गेड़ी नृत्य‘
मुरिया जनजाति के सदस्य नवाखानी त्यौहार के दौरान के दौरान लगभग एक माह पूर्व से गेड़ी निर्माण प्रारंभ कर सावन मास के हरियाली अमावस्या से भादो मास की पूर्णिमा तक गेड़ी नृत्य किया जाता है। गेड़ी नृत्य नवाखानी त्यौहार के समय करते हैं। इसमें मुरिया युवक बांस की गेंड़ी में गोल घेरा में अलग-अलग नृत्य मुद्रा में नृत्य करते हैं। नृत्य के दौरान युवतियां गोल घेरे में गीत गायन करती है। पूर्व समय ग्राम में बारिश के दिनों में ग्राम में अधिक कीचड़ होता था, ऐसी स्थिति में गेड़ी के माध्यम से एक दूसरे स्थान पर जाते है। पूर्व में ऊंचे-ऊंचे गेड़ी का निर्माण करते थे।
गेड़ी नृत्य के समय मुरिया जनजाति की महिलाएं लुगड़ा या साड़ी, पुरूष काले रंग की फूल शर्ट, प्लास्टिक की लंबी माला, इसे दोनों कंधें से छाती एवं पीठ में क्रास स्थिति में पहनते हैं। कमर में कपड़े में सिला हुआ कमर बंद या पट्टा, कमर के नीचे लाल-पीले रंग का घेरेदार लहंगा सिर में लाल पगड़ी, मोर पंख या पंखों का गुच्छा, कपड़े में सिला हुआ कपड़े से बने फूलों की पट्टी, गले में कपड़े के लाल गुच्छों की माला और अन्य माला, पैरों में घुंघरू (रस्सी में बंध अुआ) का श्रृंगार करते हैं।

वाद्य यंत्रों में बांस से बना गेंड़ी का मुख्य रूप से उपयोग किया जाता है। जिसे विभिन्न रंगों से रंग कर सजाया जाता है। साथ ही वादक मांदरी, तुडबुडी, विसिल या सीटी एवं बांसुरी का उपयोग नृत्य में करते है।
गेंड़ी नृत्य विवाह, मेला-मंड़ई, धार्मिक उत्सव के अवसर तथा मनोरंजन के लिए करते हैं। गेंड़ी नृत्य युवाओं को नृत्य है। गेंड़ी नृत्य संतुलन, उत्साह तथा रोमांस से परिपूर्ण है। मुरिया जनजाति में गेंड़ी के अनेक खेल, गेंड़ी दौड़ आदि प्रतियोगिता होती है। जिसमें पुरूष गेंड़ी पर चढ़कर नृत्य करते हैं। 

‘गवरमार नृत्य‘
गंवरमार नृत्य में मुरिया जनजाति के नर्तक दल गौर-पशु मारने का प्रदर्शन करते है। यह नाट्य तथा नृत्य का सम्मिलित रूप है। इस नृत्य में दो व्यक्ति वन में जाकर गौर-पशु का शिकार करने का प्रयास करते है, किन्तु शिकार के दौरान गौर-पशु से घायल होकर एक व्यक्ति घायल हो जाता है। दूसरा व्यक्ति गांव जाकर पुजारी(सिरहा) को बुलाकर लाता है जो देवी आह्वान तथा पूजा कर घायल व्यक्ति को स्वस्थ्य कर देता है तथा दोनों व्यक्ति मिलकर गंवर पशु का शिकार करते है। इसी के प्रतीक स्वरूप गवंरमार नृत्य किया जाता है। 

महिलाएं लुगड़ा या साड़ी, पुरूष काले रंग की फूल शर्ट, प्लास्टिक की लंबी माला, इसे दोनों कंधों से छाती व पीठ में क्रास की स्थिति में पहनते हैं कमर में कपड़े में सिला हुआ कमरबंद या पट्टा कमर के नीचे लाल-पीले रंग का घेरेदार लहंगा, सिर में लाल पगड़ी मोर पंख या पंखों का गुच्छा, कपड़े में सिला हुआ कपड़े से बने फूलों की पट्टी, गले में कपड़े के लाल गुच्छों की माला एवं अन्य माला, पैरों में घुंघरू (रस्सी में बंधा हुआ) का श्रृंगार करते है। 
वाद्य यंत्रों में ढोलक, तुडबुडी, सिटि, बांसुरी आदि का प्रयोग किया जाता है। नृत्य का प्रदर्शन मुरिया जनजाति के सदस्य गंवरमार मेला-मंडई, धार्मिक उत्सव के अवसर पर तथा मनोरंजन के लिए किया जाता है। 

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