बिहार: बिहार के बांका जिले के चांदन थाना इलाके में 8 साल की एक मासूम को अगवा कर लिया गया। फिर उसके साथ गैंगरेप किया गया। गैंगरेप के बाद उसकी हत्या कर दी गई। हत्या के बाद उसकी आंखें फोड़ दी गईं। मासूम की हत्या और आंखों को फोड़ने के बाद उसे नाले में बहा दिया गया।
यह एक दिल दहला देने वाली हैवानियत भरी घटना है। जिसे सुनकर किसी भी इंसान की आंखें नम हो जाएंगी। रोंगटे खड़े कर देने वाली बिहार की घटना यह बताने के लिए काफी है कि इंसान भेडि़यों से भी बदतर हो चुके हैं। देश की राजधानी दिल्ली में 2012 में निर्भया के साथ जिस दरिंदगी से पेश आया गया था, इस घटना ने उसकी याद ताजा कर दी है। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट 2019 के अनुसार भारत में हर घंटे 3 बच्चों के साथ बलात्कार और 5 बच्चों का यौन उत्पीड़न होता है।
मासूम से गैंगरेप और हत्या के मामले में 3 लोगों को गिरफ्तार किया गया है और जांच भी शुरू कर दी गई है। उम्मीद की जा सकती है कि मासूम के हत्यारे को जल्दी ही कठोर सजा मिलेगी। लेकिन पॉक्सो मामले में पीडि़ताओं को न्याय मिलने में जितनी देरी का इंतजार करना पड़ता है उसे अन्याय ही कहा जा सकता है। कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन की ‘‘चिल्ड्रेन कांट वैट’’ रिपोर्ट के अनुसार यौन शोषण से बच्चों का संरक्षण अधिनियम, 2012 के तहत बिहार में 2016 तक जितने भी मामले दर्ज किए गए हैं, उसी में पीडि़ता को न्याय के लिए 2029 तक इंतजार करना पड़ेगा। 2016 के बाद जो मामले दर्ज हो रहे हैं उसके लिए पीडि़ता को न जाने और कितना इंतजार करना पड़े।
यौन अपराधों से बच्चों का संरक्षण (पॉक्सो) अधिनियम, 2012 बच्चों को यौन शोषण और उत्पीड़न से बचाने की खातिर एक बड़ा और व्यापक कानून है। लेकिन यह जब बाल शोषण की बढ़ती घटनाओं से प्रभावी ढंग से निपटने में असफल रहा, तब 2019 में पॉक्सो अधिनियम में संशोधन किया गया। उसकी सजा को कठोर करते हुए मृत्युदंड तक का प्रावधान किया गया।
इसके बावजूद वांछित परिणाम देखने को नहीं मिल रहे हैं। कानूनी विशेषज्ञों के अनुसार पॉक्सो की विशेष अदालतों के माध्यम से जांच, साक्ष्य की रिकॉर्डिंग, त्वरित परीक्षण सहित एफआईआर दर्ज करने से लेकर मुकदमे तक की पूरी प्रक्रिया काफी बोझिल और समय लेने वाली है। अदालतों में पॉक्सो के हजारों मामलों के लंबित रहने से मामले आगे बढ़ते रहते हैं। लोभ या अपराधी के प्रभाव में गवाह गवाही देने से मुकर जाते हैं और मुकदमा लड़ने की लागत महंगी होने के कारण पीड़ित परिवार या पीडि़ता न्याय की उम्मीद छोड़ बैठता है।
अब सवाल यह पैदा होता है कि इन समस्याओं से कैसे पार पाया जाए। अदालती प्रक्रियाओं के लंबा खिंचने का मतलब है काम का बोझ। पर्याप्त कर्मचारियों और आधुनिक मशीनरी को बहाल करके हम अदालती कार्यवाहियों को पटरी पर ला सकते हैं। इससे न्याय देने की गति में निश्चित रूप से तेजी आएगी। इसके साथ ही सिविल सोसायटी संगठनों को पीडि़तों को सामान्य जीवन में लौटाने के लिए पुनर्वास हेतु आवश्यक प्रयास करने होंगे। बच्चों का यौन शोषण सबसे निंदनीय अपराधों में से एक है और अपराधियों को किसी भी परिस्थिति में खामियों का लाभ उठाने की अनुमति नहीं दी जानी चाहिए। त्वरित न्याय और न्याय की दर में बढोतरी बच्चों के लिए एक सुरक्षित दुनिया को सुनिश्चित करने में काफी मददगार साबित होगी।
बिहार के बांका की यह घटना अपने पीछे एक सवाल और छोड़ती है। मनोवैज्ञानिकों के अनुसार अपराधी छोटे बच्चों को अपना शिकार इसलिए बनाता है ताकि बच्चों की शारीरिक कमजोरी का फायदा उठाते हुए उसके साथ मनमर्जी की जा सके। दूसरी ओर अपराधी अपनी पहचान जाहिर नहीं होने देने के लिए बच्चों की हत्या करते हैं। फिर लाश को ऐसी जगह ठिकाने लगाते हैं जहां से उसका सुराग तक भी नहीं मिल सके।
वर्तमान में बाल यौन शोषण और उत्पीड़न के शिकार बच्चों को त्वरित न्याय सुनिश्चित करने के लिए कैलाश सत्यार्थी चिल्ड्रेन्स फाउंडेशन जस्टिस फॉर एवरी चाइल्ड नामक एक राष्ट्रीय अभियान चला रहा है। इस अभियान के तहत फाउंडेशन देशभर के 100 जिलों के 5000 से अधिक पीडि़तों को न्याय दिलाएगा। बिहार के नवादा जिले के तटवासी समाज न्यास ने भी पॉक्सो मामले में त्वरित न्याय सुनिश्चित करने और बाल यौन शोषण के खिलाफ जागरुकता बढ़ाने के लिए फाउंडेशन के साथ हाथ मिलाया है। तटवासी समाज न्यास की यह पहल बाल यौन शोषण के पीडि़तों को न्याय दिलाने एवं उसकी गरिमा और स्वतंत्रता को बहाल करने में काफी कारगर साबित होगी।
(लेखक ‘‘तटवासी समाज न्यास’’ से जुड़े हैं और वरिष्ठ सामाजिक कार्यकर्ता हैं)