बिहार

घर में ही उपेक्षित मिथिला पेंटिंग और सिक्की कला की महिलाएं

मिथिला में सदियों से सिक्की कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फलती फूलती रही। लेकिन बेरोजगारी और गरीबी के कारण पिछले पचीस-तीस वर्षों से मिथिला के लोगों का भारत के बड़े-बड़े शहरों में पलायन होता आ रहा है जिसके कारण यहां सिक्की कला दम तोड़ने की स्थिति में आ गयी है।

उत्तरी बिहार के सीतामढ़ी , मधुबनी और दरभंगा जिला की औरतें मिथिला पेटिंग (Mithila painting) और सिक्की कला (Sikki art) की कार्य करती हैं। यहाँ की मिथिला पेंटिंग को तो देश-विदेश में प्रचार -प्रसार कर सम्मान मिला जबकि सिक्की कला इन सब अभावों एवं अन्य कारणों से पिछड़ी हुई है। मिथिला में सदियों से सिक्की कला एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी तक फलती फूलती रही। लेकिन बेरोजगारी और गरीबी के कारण पिछले पचीस-तीस वर्षों से मिथिला के लोगों का भारत के बड़े-बड़े शहरों में पलायन होता आ रहा है जिसके कारण यहां सिक्की कला दम तोड़ने की स्थिति में आ गयी है।

वर्तमान समय में यह कला सम्पूर्ण मिथलांचल से सिमट कर मात्र रैयाम ,सरिसवपाही ,उमरी बलिया ,यददुपट्टी ,एयर करुणा मल्लाह गॉंव जो दरभंगा ,मधुबनी और सीतामढ़ी जिला में स्थित है, तक ही रह गयी है। पिछले कुछ दिनों में सिक्की कला को सरकार के द्वारा व्यावसायिक आधार मिली है जिसके कारण सिक्की कला से जुडी हुई महिलाओं की आर्थिक स्थिति में सुधार आया है|सिक्की की उपज नदी , तालाबों के किनारे दलदल वाली जमीन पर होती है।सम्पूर्ण मिथिलांचल में इसकी प्रचूरता है।यहाँ से पलायन करने वाले जन को रोक कर इस कला से निर्मित होने वाले वस्तुओं का स्थान देश के अन्य भागों में बनने वाली कला कृत्यों में एक विशिष्ट स्थान रख सकता है।

सिक्की कला में सिक्की घास के साथ मूँज और खर का भी प्रयोग होताहै। समय के साथ-साथ सिक्की कला अपने आप को विविधता के तौर पर हाथ पंखा,पौती (ट्रे),टेबुलमेट,आईने का फ्रेम,मौनी और खिलौना के रूप मेंअपने आप को ढाल लिया है| मिथिलांचल में जिस घर से बेटी विवाह के बाद अपने मायके से ससुराल विदा होती है तो साथ में सिक्की कला से बने हुए बहुतेरे सामान दिए जाते हैं ताकि उसका नया घर परिवार सुसंस्कृत और कला के प्रति समर्पित होगा|कारीगर सिक्की को पहले कई रंगों में रंगते हैं और फिर टकुआ जो लोहे की एक मोटे सुई की तरह होती है एवं कैंची से बहुत तरह की आकृतियां बनाते हैं। मिथिला पेंटिंग में जिस तरह दुर्गा ,आँख,गुलदान,शिव,नाग-नागिन ,कछुआ,आम का पेड़ ,कदम्ब,सूर्य,मछली आदि का चित्र बनया जाता है ,मधुबनी पेंटिंग की तरह सिक्की कला में भी इन चित्रों को उकेरा जाता है। बाजार में सिक्की आर्ट से हुई मांग बढ़ी है। अब वे बाजार में मांग के अनुसार बनाने लगे हैं।

सिक्की घास को गर्म पानी में उबाल कर उसे अधिक रंगों में रंगा जाता है और उससे भिन्न-भिन्न प्रकार के सामान बनाए जाते हैं। सिक्की कला को विकसित करने में मुस्लिम महिला कारीगरों की भी मुख्य भूमिका हो रही हैं नाजो ख़ातून ने तो देवी काली और भगवान शिव की मूर्ति भी सिक्की घास से बना कर महारत हासिल की है। शहरों में तो इस कला के अच्छे कद्रदान होने के कारण कारीगरों द्वारा बनाए गये वस्तुओं की बिक्री ५०० रु० से १००० रु० तक हो जाती है। लेकिन गाँवो में यह धंधा फायदेमन्द नहीं है।