यूँ तो हम भी कोई बहुत पुरानी चीज नहीं हुए, पर वे दिन जरूर पुराने थे जब किसी के मुस्कुराने का मतलब ‘इश्क’ हुआ करता था। वे ऐसे जल्दबाज दिन थे कि आम में मोजर भले दस दिनों बाद लगें, पर हृदय फागुन चढ़ने के पखवाड़े भर पहले से ही महकने लगता था।
जिन्दगी की फटफटिया किसी रेड-लाइट पर खड़ी हो तो पीछे मुड़ कर देखने पर दिखता है वह मासूस किशोर, जो कभी-कभी स्कूल से घर आने के क्रम में यह सोच कर चार किलोमीटर अधिक साइकिल रगड़ देता था कि कुछ भी हो आज जाएंगे उसके गाँव की राह से ही…
मनोविज्ञान के धुरंधर पता नहीं इस तर्क को स्वीकार करेंगे या नहीं, पर उन दिनों लगता था कि ‘उसके’ गाँव के खिलाफ मैच में जीरो पर आउट हो जाना ही प्रेम है। हमारे रहते उसका गाँव हार जाय तो काहे के हम, और काहे का प्रेम? इसी चक्कर में चार बार जीरो पर आउट हुए थे तब! नहीं तो आज भी आँख मूँद कर बैट भाँज दें साला छक्का जाएगा…
प्रेम की सबसे सुन्दर कहानियां कभी लिखी नहीं गयीं। लिखी गयी होतीं तो वह लड़का महानायक होता जो नौंवी के रिजल्ट की रात को यह सोच कर तकिए में मुँह छिपा कर रोया था, कि काश! हम फर्स्ट नहीं आये होते तो वह क्लास टॉप कर जाती…
सच पूछिए तो पक्का प्रेम गाँवों में ही होता था! और वह भी तब, जब हाथों में मोबाइल नहीं हुआ करते थे। तब हथेली पर कलेजा ले कर चलते थे लड़के… माटी के लड़के, माटी की लड़कियाँ… सरसो के फूल जैसी लड़कियाँ, बाजरे के डंठल जैसे लड़के… गाँव के हर खेत को अपने बाप का खेत समझ कर उसमें से साग खोंट लेने वाली प्यारी लड़कियाँ, और दूसरे के खेत में भी चरती बकरी को देखते ही साइकिल रोक कर दु-चार गारी हउँक देने वाले लंठ लड़के…
पता नहीं वह कौन गीतकार था जिसने लिखा था, “खता तो तब है जब हाले-दिल किसी से कहें, किसी को चाहते रहना कोई खता तो नहीं…” गाँव के नब्बे प्रतिशत प्रेमियों ने इसे ही तेलहवा बाबा का मन्तर समझ लिया था तब! मैट्रिक की परीक्षा से तीन दिन पहले काली माई से फर्स्ट डिविजन मांगते समय मुँह से जिसका नाम अनायास ही बार-बार निकल जाता हो, मजाल कि उसे पता भी चल जाय! कब्बो ना… खजुअट जैसी दुर्दांत बीमारी तक तो किसी को पता नहीं चलने देते थे लड़के, प्रेम भला क्या पता चले…
अच्छा, कुछ इच्छाएँ बड़ी पवित्र होती हैं। जैसे उसके मुँह से यह सुन लेने की इच्छा, कि तुम बड़ा सुन्दर लिखते हो! तब क्लास में सबने कहा था, सिवाय उसके… ठीक भी है, बच्चन ने लिखा था, “पा जाता तो हाय न इतनी प्यारी लगती मधुशाला…” कुछ इच्छाओं का अपूर्ण रह जाना ही ठीक होता है।
हाँ तो बात तब की थी जब ‘प्रेम’ आँख के लोर की तरह पवित्र हुआ करता था। हाँ, तबकी बात जब प्रेम में प्रदूषण नहीं था। छोड़िये भी! अब कौन सुनता है…
#अनूप नारायण सिंह
सदस्य, फिल्म सेंसर बोर्ड कोलकाता ( सूचना प्रसारण मंत्रालय भारत सरकार)
(लेख में लेखक को न तलाशें, सब कल्पना है। इसका हकीकत से कुछ लेना देना नहीं😊)