राजस्थान (Rajasthan) में झालरापाटन (Jhalrapatan) का सूर्य मंदिर (Surya Mandir) अपनी प्राचीनता और स्थापत्य वैभव के कारण कोणार्क के सूर्य मंदिर और ग्वालियर (Gwalior) के ‘विवस्वान मंदिर’ (Vivaswan Temple) का स्मरण कराता है। शिल्प सौन्दर्य की दृष्टि से मंदिर की बाहरी व भीतरी मूर्तियाँ वास्तुकला की चरम ऊँचाईयों को छूती है। मंदिर का ऊर्घ्वमुखी कलात्मक अष्टदल कमल अत्यन्त सुन्दर जीवंत और आकर्षक है। शिखरों के कलश और गुम्बज अत्यन्त मनमोहक है। गुम्बदों की आकृति को देखकर मुग़लकालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला का स्मरण हो जाता है।
राजस्थान में कभी ‘झालरों के नगर’ के नाम से प्रसिद्ध झालरापाटन का हृदय स्थल यहाँ का यह सूर्य मंदिर हैं। इसका निर्माण नवीं सदी में हुआ था। यह मंदिर अपनी प्राचीनता और स्थापत्य वैभव के कारण प्रसिद्ध है। कर्नल जेम्स टॉड ने इस मंदिर को चार भुजा (चतुर्भज) मंदिर माना है। वर्तमान में मंदिर के गर्भ गृह में चतुर्भज नारायण की मूर्ति प्रतिष्ठित है।
11 वीं सदी के पश्चात सूर्य मंदिर शैली में निर्मित ‘शान्तिनाथ जैन मंदिर’ को देखकर पर्यटकों को सूर्य मंदिर में जैन मंदिर का भ्रम होने लगता है। किन्तु चतुर्भुज नारायण की स्थापित प्रतिमा, भारतीय स्थापत्य कला का चरम उत्कर्ष एवं मंदिर का रथ शैली का आधार, ये सब निर्विवाद रूप से सूर्य मंदिर प्रमाणित करते हैं। वरिष्ठ इतिहासकार बलवंत सिंह हाड़ा द्वारा सूर्य मंदिर में प्राप्त शोधपूर्ण शिलालेख के अनुसार संवत 872 (9 वीं सदी) में नागभट्ट द्वितीय द्वारा झालरापाटन के इस मंदिर का निर्माण कराया गया था।
यह विशाल सूर्य मंदिर पद्मनाथजी मंदिर, बड़ा मंदिर, सात सहेलियों का मंदिर आदि अनेक नामों से प्रसिद्ध है। यह मंदिर दसवी शताब्दी का बताया जाता है। मंदिर का निर्माण खजुराहो एवं कोणार्क शैली में हुआ है।
रथ शैली में बना यह मंदिर इस धारणा को पुष्ट करता है। भगवान सूर्य सात अश्वों वाले रथ पर आसीन हैं। मंदिर की आधारशिला सात अश्व जुते हुए रथ से मेल खाती है। मंदिर के अंदर शिखर स्तंभ एवं मूर्तियों में वास्तुकला उत्कीर्णता की चरम परिणति को देखकर दर्शक आश्चर्यचकित होने लगते है।शिल्प सौन्दर्य की दृष्टि से मंदिर की बाहरी व भीतरी मूर्तियां वास्तुकला की शीर्ष ऊँचाईयों को छूती है।
मंदिर का ऊर्घ्वमुखी कलात्मक अष्टदल कमल अत्यन्त सुन्दर जीवंत और आकर्षक है। मदिर का उर्ध्वमुखी अष्टदल कमल आठ पत्थरों को संयोजित कर इस कलात्मक ढंग से इस तरह उत्कीर्ण किया गया है, जैसे यह मंदिर कमल का पुष्प हो। मंदिर का गगन स्पर्शी सर्वोच्च शिखर 97 फीट ऊँचा है। मंदिर में अन्य उपशिखर भी हैं। शिखरों के कलश और गुम्बज अत्यन्त मनमोहक है। गुम्बदों की आकृति को देखकर मुग़लकालीन स्थापत्य एवं वास्तुकला का स्मरण हो जाता है। सम्पूर्ण मंदिर तोरण द्वार, मण्डप, निज मंदिर, गर्भ गृह आदि बाहरी भीतरी भागों में विभक्त हैं। समय-समय पर मंदिर के जीर्ण ध्वजों का पुनरोद्धार एवं ध्वजारोहण हुआ है।
पुराणों में भगवान सूर्य की उपासना चतुर्भुज नारायण के रूप में की गई है। ‘राजस्थान गजेटियर’ झालावाड़ के अनुसार भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा यहाँ के संरक्षित महत्वपूर्ण स्मारकों की सूची में सूर्य (पद्मनाथ) मंदिर का प्रथम स्थान है। सूचना व जनसम्पर्क विभाग द्वारा प्रकाशित ‘राजस्थान झालावाड़ दर्शन’ तथा ‘ज़िला झालावाड़ प्रगति के 3 वर्ष’ संदर्भ ग्रन्थों में भी सूर्य मंदिर को ‘पद्मनाथ’ तथा ‘सात सहेलियों का मंदिर’ कहा गया है।
पर्यटन और सांस्कृतिक विभाग’ राजस्थान द्वारा प्रकाशित ‘राजस्थान दर्शन एवं गाइड’ में इस प्राचीन मंदिर को झालरापाटन नगर का प्रमुख आकर्षण केन्द्र माना माना गया है। भारत में सूर्य की सबसे अच्छी और सुरक्षित प्रतिमा के रूप में इसे मान्यता प्रदान की गई है।
इस सूर्य मंदिर के बारे में यह कहा जा सकता है कि ये मंदिर और इसकी मूर्तियां इतने विषयों को अपने में समेटे हुए है, मानो अपने आप में पूरा संसार हो। ऐसा लगता है जैसे मंदिर सिर्फ देव पूजा या अध्यात्म का केंद्र ही नहीं बल्कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष जीवन के सभी पुरुषार्थ का केंद्र होता होगा। चित्तौड़गढ़ के कीर्ति स्तम्भ की तरह ये मंदिर भी मूर्तियों का शब्दकोष और संग्रहालय है।