भगवान श्रीगणेश का ‘लम्बोदर’ नामक अवतार (Lambodar Avatar) सत्स्वरूप तथा शक्तिब्रह्म का धारक है। इसका भी वाहन मूषक है। भगवान विष्णु के मोहिनी रूप को देखकर भगवान शिव काम-मोहित हो गए।
जब भगवान विष्णु ने मोहिनी रूप का त्याग किया तो भगवान शिव का मन दुखी हो गया। उसी समय उनका शुक्र धरती पर स्खलित हो गया। उससे एक परम प्रतापी काले रंग का असुर पैदा हुआ। उसके नेत्र तांबे की तरह चमकदार थे। वह असुर शुक्राचार्य के पास गया और कहा-प्रभो! मुझे शिष्य स्वीकार कर मेरा पालन करिए तथा मेरा नामकरण करने की कृपा करें। शुक्राचार्य कुछ क्षण ध्यानमग्न हो गए।
विचार करने के बाद अपने इस योग्य शिष्य का नाम क्रोधासुर रखा। उन्होंने उसका संस्कार कर अपनी शिक्षा से उसे भलीभांति योग्य बनाया। फिर उन्होंने शम्बर दैत्य की परम रूपवती कन्या प्रीति के साथ उसका विवाह कर दिया।
एक दिन क्रोधासुर ने आचार्य के समक्ष हाथ जोड़कर कहा-मैं आपकी आज्ञा से सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड पर विजय प्राप्त करना चाहता हूं। अत: आप मुझे यश प्रदान करने वाला मंत्र देने की कृपा करें। शुक्राचार्य ने उसे सविधि सूर्य-मंत्र की दीक्षा दी।
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क्रोधासुर शुक्राचार्य की आज्ञा लेकर वन में चला गया। वहां उसने एक पैर पर खड़े होकर सूर्य-मंत्र का जप किया। उस धैर्यशाली दैत्य ने निराहार रह कर वर्षा, शीत और धूप का कष्ट सहन करते हुए कठोर तप किया। असुर के सहस्रों वर्षों की तपस्या के बाद भगवान सूर्य प्रसन्न होकर प्रकट हुए।
क्रोधासुर ने उनका भक्तिपूर्वक पूजन किया। भगवान सूर्य को प्रसन्न देखकर उसने कहा-प्रभो! मेरी मृत्यु न हो। मैं संपूर्ण ब्रह्मांड को जीत लूं। सभी योद्धाओं में मैं अद्वितीय सिद्ध होऊं। तथास्तु! कहकर भगवान सूर्य अंतर्ध्यान हो गए।
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घर लौटकर क्रोधासुर ने शुक्राचार्य के चरणों में प्रणाम किया। शुक्राचार्य ने उसका आवेशपुरी में दैत्यों के राजा के पद पर अभिषेक कर दिया। कुछ दिनों बाद उसने असुरों से ब्रह्मांड-विजय की इच्छा व्यक्त की। असुर बड़े प्रसन्न हुए। विजय यात्रा प्रारंभ हुई। उसने पृथ्वी पर सहज ही अधिकार कर लिया।
फिर वह अमरावती पर चढ़ दौड़ा। उसके डर से देवता भाग गए। स्वर्ग भी उसके अधीन हो गया। इसी प्रकार बैकुंठ और कैलाश पर भी उस महादैत्य का राज स्थापित हो गया। क्रोधासुर ने भगवान सूर्य के सूर्यलोक को भी जीत लिया। वरदान देने के कारण उन्होंने भी सूर्यलोक का दुखी हृदय से त्याग कर दिया।
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तत्पश्चात अत्यंत दुखी देवताओं और ऋषियों ने गणेशजी की आराधना की। इससे संतुष्ट होकर लम्बोदर प्रकट हुए। उन्होंने कहा-देवताओ और ऋषियो! मैं क्रोधासुर का अहंकार चूर्ण कर दूंगा, आप लोग निश्चिन्त होकर जाएं।
लम्बोदर के साथ क्रोधासुर का भीषण संग्राम हुआ। देवगण भी असुरों का संहार करने लगे। क्रोधासुर के बड़े-बड़े योद्धा समर भूमि में आहत होकर गिर पड़े। आखिरकार, क्रोधासुर दुखी होकर लम्बोदर के चरणों में गिर गया तथा उनकी भक्ति भाव से स्तुति करने लगा।
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सहज कृपालु लम्बोदर ने उसे अभयदान दे दिया। क्रोधासुर भगवान लम्बोदर का आशीर्वाद और भक्ति प्राप्त कर शांत जीवन बिताने के लिए पाताल में चला गया। देवता अभय और प्रसन्न होकर भगवान गणेश का गुणगान करने लगे।
लम्बोदरावतारो वै क्रोधासुर निबर्हण:। शक्तिब्रह्माखुग: सद् यत् तस्य धारक उच्यते।।