विचार

हवा की गुणवत्ता का कृषि पर भी सीधा प्रभाव

एक नए अध्ययन, जिसमें जलवायु, हवा की गुणवत्ता और कृषि के बीच अंतर संबंधों तथा जन स्वास्थ्य पर उन सभी के संयुक्त प्रभाव को खंगालने के लिए शोध किया गया है, से चलता है कि वायु गुणवत्ता का प्रभाव हमारी कृषि पर भी पड़ता है और इसी क्रम में हमारे स्वास्थ्य पर भी इसका प्रतिकूल […]

एक नए अध्ययन, जिसमें जलवायु, हवा की गुणवत्ता और कृषि के बीच अंतर संबंधों तथा जन स्वास्थ्य पर उन सभी के संयुक्त प्रभाव को खंगालने के लिए शोध किया गया है, से चलता है कि वायु गुणवत्ता का प्रभाव हमारी कृषि पर भी पड़ता है और इसी क्रम में हमारे स्वास्थ्य पर भी इसका प्रतिकूल प्रभाव पड़ता है।

'वन अर्थ' नामक पत्रिका में प्रकाशित इस शोध का शीर्षक है ‘अ सिस्टम्स लेंस टू इवेलुएट द कंपाउंड ह्यूमन हेल्थ इंपैक्ट्स ऑफ एंथ्रोपोजेनिक एक्टिविटीज' (मानव की गतिविधियों के इंसान की सेहत पर पड़ने वाले समग्र प्रभावों के मूल्यांकन के लिए एक प्रणालीगत नजरिया) और इसमें गर्मी के कारण उत्पन्न होने वाली बीमारियों को स्वास्थ्य प्रभावों के तौर पर वर्गीकृत किया गया है, जैसे कि दमा, फेफड़े के कैंसर का बढ़ा हुआ खतरा और सांस संबंधी गंभीर बीमारियां। इसके अलावा पोषण से संबंधित बीमारियां, जैसे कि गर्भधारण करने की आयु में महिलाओं में होने वाला एनीमिया तथा आयरन एवं जिंक की कमी।

जलवायु, कृषि तथा वायु की गुणवत्ता के बीच सेहत पर पड़ने वाले विशिष्ट प्रभावों से संबंधित यह जुगलबंदी इंसान की गतिविधियों के कारण पर्यावरण में हुए बदलाव की वजह से जन स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों की एक समेकित तस्वीर उत्पन्न करती हैह इस अध्ययन में देश के नीति निर्धारकों का ध्यान खींचा गया है ताकि वे इन विविध तथा गतिमान अंतरसंबंधों पर विचार करें और एक विस्तृत वैज्ञानिक नजरिए से जन स्वास्थ्य के विषय को देखें। इस अध्ययन में वैज्ञानिकों ने भारत का उदाहरण देते हुए जन स्वास्थ्य पर इंसान की गतिविधियों और पर्यावरणीय प्रभावों के मूल्यांकन के लिए बेहतर उपकरण तथा स्वास्थ्य, मौसम, उत्सर्जन, वायु प्रदूषण तथा भू-उपयोग से संबंधित अधिक सघन डेटा की आवश्यकता पर जोर दिया है।

इंडियन स्कूल ऑफ बिजनेस पब्लिक पॉलिसी के एसोसिएट प्रोफेसर अश्विनी छात्रे ने कहा "कृषि संबंधी गतिविधियों से हवा की गुणवत्ता पर असर पड़ता है लेकिन हवा की गुणवत्ता का कृषि पर भी प्रभाव पड़ता है। इनकी तीव्रता मानव जनित गतिविधियों के कारण जलवायु पर पड़ने वाले प्रभावों से और भी ज्यादा हो जाती है। नीति निर्माण में जटिल मानव पर्यावरण प्रणालियों में उभरते हुए इस बहुमुखी संवाद को भी शामिल किया जाना चाहिए। इस अध्ययन में यह बताया गया है कि किस तरह से उपयोगी और प्रभावी नीतिगत प्रतिक्रियाओं में बहुविध कारकों तथा संवादों को ध्यान में रखे जाने की जरूरत है और यह अध्ययन सरल व्याख्या को नजरअंदाज करने की जरूरत को भी रेखांकित करता है।

आईएसबी के साथ-साथ कोलंबिया यूनिवर्सिटी, यूनिवर्सिटी ऑफ वाशिंगटन, बोस्टन यूनिवर्सिटी और यूनिवर्सिटी आफ डेलावेयर के अनुसंधानकर्ताओं ने इस बहु-अनुशासनिक शोध में अपना सहयोग दिया है। शोधकर्ताओं का कहना है कि भारत जलवायु संबंधी स्वास्थ्य खतरों के लिहाज से सबसे ज्यादा जोखिम से घिरे हुए क्षेत्रों में से एक है। अत्यधिक जनसंख्या घनत्व, निर्धनता की उच्च दर, खाद्य सुरक्षा की गंभीर स्थिति और कृषि पर जरूरत से ज्यादा निर्भरता इसके मुख्य कारण हैं। ऐसे प्रणालीगत रवैयों से नीतिगत विकास तथा फैसले लेने में काफी मदद मिल सकती है। खासतौर पर दक्षिण एशियाई क्षेत्र के विकासशील देशों में।

वाशिंगटन यूनिवर्सिटी में असिस्टेंट प्रोफेसर और इस शोध पत्र की मुख्य लेखक डॉक्टर दीप्ति सिंह ने कहा "हम धरती की प्राकृतिक प्रणालियों के कई हिस्सों से उन समग्र स्वास्थ्य प्रभावों का आकलन करने के लिए एक कार्य योजना पेश कर रहे हैं जो इंसान की गतिविधियों के कारण पड़ने वाले प्रभावों की वजह से एक ही समय में परिवर्तित हो रहे हैं। देश के साथ-साथ वैश्विक स्तर पर प्रभावी नीतिगत परिवर्तनों के संचालन के लिए इन बदलावों की सावधानीपूर्वक व्यापक जांच की जानी चाहिए।" इस अध्ययन के लेखकों को उम्मीद है कि इन अंतः क्रियाओं की एक एकीकृत क्षेत्र विशिष्ट समझ से देशों को फैसले लेने और अनुकूलन योजना का समर्थन करने में मदद मिलने के साथ-साथ सतत नीतिगत विकास में सहयोग प्राप्त हो सकता है।

अपनी प्रतिक्रिया देते हुए इंडियन इंस्टीट्यूट आफ ट्रॉपिकल मीटरोलॉजी के वैज्ञानिक डॉक्टर रॉक्सी मैथ्यू कोल ने कहा, "हम बहुत तेजी से पर्यावरणीय बदलावों से गुजर रहे हैं जो जटिल होने के साथ-साथ बहुआयामी भी हैं। उदाहरण के तौर पर बड़े पैमाने पर जलवायु परिवर्तन, स्थानीय वायु प्रदूषण के कारण हवा की खराब गुणवत्ता और भोजन तथा पानी की किल्लत के कारण चरम मौसमी परिघटनाओं के संपर्क में एक साथ रहने से विकासशील देशों में स्वास्थ्य संबंधी जटिलताएं और मिश्रित समस्याएं उत्पन्न हो सकती हैं। एक और उदाहरण है जब तटीय क्षेत्रों के साथ समुद्री जल की घुसपैठ से हैजा जैसी बीमारियां होती हैं। साथ ही साथ इस क्षेत्र में कृषि, भोजन और पानी की गुणवत्ता भी प्रभावित होती है। अक्सर हम व्यक्तिगत तौर पर इन मसलों की जांच और समाधान का प्रयास करते हैं, जिससे स्वास्थ्य पर समग्र प्रभाव को कम करके आंका जाता है। अध्ययन में इस बात पर रोशनी डाली गई है कि हमें तत्काल अंतर्विषय वैज्ञानिक प्रयासों की जरूरत है जो एक साथ बढ़ते पर्यावरणीय खतरों और उनसे संबंधित स्वास्थ्य जोखिमों के खतरे को सटीक तरीके से नाप सके। इसके लिए वैज्ञानिकों, चिकित्सा विशेषज्ञों और स्थानीय प्रशासन को एक साथ काम करने और डाटा साझा करने की जरूरत होगी। यह एक चुनौती है जिसका समाधान हमें निकालना होगा।"

भारती इंस्टीट्यूट ऑफ पब्लिक पॉलिसी के शोध निदेशक और आईपीसीसी स्पेशल रिपोर्ट ऑन ओशन एंड क्रायोस्फीयर 2019 के समन्वयक मुख्य लेखक डॉक्टर अंजल प्रकाश कहते हैं, "हाल ही में जारी हुई आईपीसीसी की फिजिकल साइंस रिपोर्ट से जाहिर होता है कि मानवीय हस्तक्षेप के कारण जलवायु में अप्रत्याशित परिवर्तन हो रहे हैं। यह अध्ययन इस मुद्दे को और आगे लेकर जाता है और जलवायु परिवर्तन को जन स्वास्थ्य से जोड़ता है। इसके लिए वायु की गुणवत्ता, कृषि भूमि के इस्तेमाल का प्रबंधन और दक्षिण एशिया में मानव की गतिविधियों के कारण उत्पन्न होने वाली पर्यावरणीय चुनौतियां का जिक्र किया गया है। ऐसे अनुसंधान दुर्लभ होते हैं और इनसे मानव पर्यावरण प्रणाली के संपर्कों के प्रति हमारी समझ में मौजूद खामियां भी खत्म होती हैं। यह अध्ययन बहुत सही समय पर किया गया है क्योंकि कॉन्फ्रेंस आफ पार्टीज (सीओपी26) की बैठक भी जल्द ही होने वाली है और इस रिसर्च में बताए गए उपायों से नीति नियंताओं को मौजूदा ढर्रे में सुधार के उद्देश्य से कुछ कड़े फैसले लेने में मदद मिल सकती है।"

यूनिवर्सिटी ऑफ डेलावेयर में असिस्टेंट प्रोफेसर और इस अध्ययन पत्र के सह लेखक काइल डेविस ने कहा "दक्षिण एशिया में स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभाव को समझने के लिहाज से जलवायु तथा कृषि के बीच होने वाली अंतः क्रिया बहुत महत्वपूर्ण है, क्योंकि इस क्षेत्र में कृषि के कारण होने वाला भू-उपयोग परिवर्तन बहुत तेजी से जारी है। इसके अलावा खेती के तौर-तरीके और छोटी जोत पर आधारित रोजी रोटी की अधिकता है। यह शोध पत्र खाद्य प्रणालियों को प्रभावित करने वाले रास्तों पर नई रोशनी डालता है जो जलवायु परिवर्तन और हवा की गुणवत्ता से प्रभावित हैं।

चिंता के मुख्य कारण
1) भारत में वर्ष 1990 के मुकाबले ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 260% बढ़ गया है : भारत में वर्ष 1990 के स्तरों के मुकाबले 2014 में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन 260% ज्यादा हो गया है। ऐसा मुख्य रूप से ऊर्जा क्षेत्र में हुई वृद्धि के कारण हुआ है। घरेलू तथा कृषि बायोमास को जलाए जाने तथा कोयला बिजली घरों से निकलने वाले प्रदूषणकारी तत्व और वाहनों से निकलने वाले धुएं के कारण वातावरण में हानिकारक प्रदूषणकारी तत्वों के एरोसोल सांद्रता में वृद्धि हुई है। दक्षिण एशियाई देशों के ग्रीन हाउस गैसों के कुल बजट में अकेले कृषि का ही योगदान 19% है। उर्वरकों के इस्तेमाल से उत्पन्न होने वाली नाइट्रस ऑक्साइड, ट्रैक्टरों तथा पंपों से निकलने वाली कार्बन डाइऑक्साइड और बाढ़, सिंचाई, मिट्टी तथा उर्वरक प्रबंधन और आंत सम्बन्धी किण्वन से पैदा होने वाली मीथेन गैस के साथ-साथ क्षेत्र में सर्वव्यापी धान की खेती में योगदान से उत्पन्न होने वाली मीथेन गैस के कारण कृषि से उत्पन्न होने वाली ग्रीन हाउस गैसों की तीव्रता काफी ज्यादा होती है। जलवायु की तेजी से बदलती तर्ज और कार्बन डाइऑक्साइड की बढ़ती सांद्रता से अनाज और आलू की पोषण सामग्री में कटौती हो सकती है। हालांकि वर्तमान समय में कम आय वाले देशों में उनके प्रभावों के पैमाने के बारे में बहुत सीमित डेटा ही मौजूद है।

2) पंजाब और हरियाणा में पराली जलाए जाने के कारण कृषि उत्पादकता में गिरावट : इस अध्ययन में खरीफ सत्र के अंत में पंजाब तथा हरियाणा में बड़े पैमाने पर पराली जलाए जाने के कारण अत्यधिक मात्रा में उत्पन्न होने वाले बारीक पार्टिकुलेट मैटर और नाइट्रोजन ऑक्साइड के मामले को भी सामने रखा गया है। इसी तरह ओजोन के बढ़े हुए सतह स्तरों को भी भारत में गेहूं, धान, कपास तथा सोयाबीन फसलों की उत्पादकता में गिरावट का एक अहम कारण माना जाता है। इन सभी से यह संकेत मिलता है कि कृषि तथा वातावरणीय प्रदूषण उसी तरह महत्वपूर्ण बना हुआ है, जैसे क्षेत्रीय पर्यावरणीय परिस्थितियों और मानव स्वास्थ्य पर उनके सामूहिक परिणामों को प्रभावित करने में ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन।

3) जलवायु परिवर्तन मानव स्वास्थ्य के लिए हानिकारक है : इस अध्ययन में स्वास्थ्य प्रभावों को गर्मी से संबंधित बीमारियों (थकावट हीट स्ट्रोक तथा हृदय संबंधी बीमारियों), प्रदूषण से संबंधित रोगों (दमा, फेफड़ों के कैंसर का बढ़ा हुआ जोखिम, फेफड़ों की पुरानी बीमारियां) तथा पोषण संबंधी बीमारियों (प्रजनन की आयु में महिलाओं में एनीमिया आयरन और जिंक की कमी) में वर्गीकृत किया गया है। इस विश्लेषण में जलवायु, कृषि तथा वायु गुणवत्ता के बीच विभिन्न अंत: क्रियाओं को विशिष्ट स्वास्थ्य प्रभावों से जोड़ा गया है ताकि अंतर क्रियाओं के सामूहिक स्वास्थ्य प्रभावों की एक समग्र तस्वीर तैयार की जा सके।

प्रमुख सिफारिशें
इस अध्ययन पत्र में जलवायु परिवर्तन वायु की गुणवत्ता कृषि तथा जन स्वास्थ्य से संबंधित सैकड़ों अध्ययनों के तत्वों को शामिल किया गया है ताकि स्वास्थ्य पर पड़ने वाले जोखिमों और इंसानी गतिविधियों के कारण साथ ही साथ उत्पन्न पर्यावरणीय परिवर्तनों को जोड़ने वाली सिफारिशें प्रस्तावित की जा सकें।

क). वायु प्रदूषण कृषि मौसम संबंधी परिवर्तन और ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन पर मानव जनित कारकों और उनके पर्यावरण संबंधी प्रभावों को नापने के लिए एक ओपन एक्सेस डाटा सेट बनाना और दक्षिण एशिया तथा अन्य विकासशील देशों में स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों का सटीक मूल्यांकन करने के लिए उच्च प्रदूषण सांद्रता पर दीर्घकालिक महामारी विज्ञान संबंधित डेटा एकत्र करना।

ख). एक ऐसा विस्तृत पर्यावरणीय मानव स्वास्थ्य प्रणाली मॉडल बनाया जाए जो जलवायु तथा वायु प्रदूषण के संपर्क में आने से इंसान के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले स्थानीय प्रभावों को जानने के लिए एक इंटीग्रेटेड एससमेंट मॉडल पर आधारित हो और जो भविष्य में स्वास्थ्य संबंधी खतरों के बारे में पूर्वानुमान लगाने में सक्षम हो।

ग). संभावित पर्यावरणीय परिवर्तनों और मानव स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों की सीमा को मापने के लिए भविष्य की जलवायु और प्रदूषण प्रक्षेप वक्र का सिमुलेशन तैयार किया जाए जो हर चरण पर प्रभाव को कम करने के लिए हस्तक्षेपकारी बिंदुओं की पहचान करा सके और विभिन्न नीतिगत इंटरवेंशंस के उन आर्थिक प्रभावों को संबोधित करता हो जो मानव जनित चालकों तथा सिस्टम्स मॉडल के जरिए पर्यावरणीय प्रणाली पर प्रतिक्रिया देते हैं।

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