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त्याग और समर्पण के प्रतीक हैं पाण्डेय सर

देवेन्द्र कुमार पाण्डेय का नाम लखीमपुर में जाना पहचाना नाम है। कुछ लोग इन्हें ”गुरूजी“ कुछ “मास्टरजी” तो कुछ “पाण्डेय सर” कह कर पुकारते हैं। बिहार के सारण जिले के सलखूआ गाँव में 19 जुलाई 1955 को इनका जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। इनके पिता एक आदर्श शिक्षक के रूप में विख्यात थे। […]

देवेन्द्र कुमार पाण्डेय का नाम लखीमपुर में जाना पहचाना नाम है। कुछ लोग इन्हें ”गुरूजी“ कुछ “मास्टरजी” तो कुछ “पाण्डेय सर” कह कर पुकारते हैं। बिहार के सारण जिले के सलखूआ गाँव में 19 जुलाई 1955 को इनका जन्म एक मध्यमवर्गीय परिवार में हुआ था। इनके पिता एक आदर्श शिक्षक के रूप में विख्यात थे। अक्तूबर 1967 में ये घूमने के उद्देश्य से  असम आये थे। इनके अग्रज आयुर्वेदिक चिकित्सक थे, जो दोलोहाट में रहते थे और बहनोई उत्तर लखीमपुर के मुख्य डाकघर में सिगनेलर (तारबाबु) के पद पर कार्यरत थे। पाण्डेय जी दोलोहाट में दो माह रहे। इसके बाद वे अपने बहनोई के पास आ गए और पंजाब होटल के पीछे डाकघर के मकान में रहने लगे। 18 मई 1978 को उषा पाण्डेय से इनका विवाह हुआ। कालांतर में इनकी दो पुत्री और एक पुत्र हुए। इस समय इनके तीनों बच्चे दिल्ली ,गुरुग्राम और बेंगलुरु में रह रहे हैं और पाण्डेय जी अपनी धर्मपत्नी के साथ नार्थ लखीमपुर में।

शिक्षक के रूप में
जब वे नार्थ लखीमपुर आये थे, उस समय यह अत्यंत छोटा सा शहर था। यहाँ हिंदी माध्यम का कोई विद्यालय नहीं था। उनके बहनोई स्व चन्द्रिका प्रसाद पाण्डेय दो अन्य लोगों – स्व हरिश्चंद ठाकुर और स्व विजय शंकर पाण्डेय के साथ उस समय आम लोगो के सहयोग से  हिंदी विद्यालय के लिये भवन बनवा रहे थे। इन लोगों ने देवेन्द्रजी से हिंदी माध्यम का एक स्कूल शुरू करने का अनुरोध किया और 10 जनवरी 1968 को इन्होंने उत्तर लखीमपुर हिंदी विद्यालय के नाम से प्राथमिक विद्यालय खोला और 75 रु मासिक वेतन पर अध्यापन कार्य शुरू किया। स्व मदन लाल मालपानी को विद्यालय का सचिव और स्व ओम् प्रकाश  दिनोदिया को अध्यक्ष की जिम्मेदारी दी गई। उम्मीद थी कि विद्यालय का सरकारीकरण हो जायेगा, परन्तु विद्यालय संचालन समिति के कुछ स्वार्थी लोगों के चलते यह संभव नहीं हो पा  रहा था। विद्यालय के उस भवन में शाम के समय राष्ट्रभाषा महाविद्यालय की कक्षाएं लगती थी। बाद में पता चला कि जमीन का मालिकाना हक राष्ट्रभाषा महाविद्यालय के पास है। इसलिए राष्ट्रभाषा महाविद्यालय प्रबंधन समिति द्वारा हिंदी विद्यालय को वहां से कहीं और ले जाने के लिए दबाव डाला जाने लगा। पाण्डेय जी और स्व विजय शंकर पाण्डेय राष्ट्रभाषा महाविद्यालय की कार्यकारिणी समिति के अध्यक्ष स्व महानंद बरा से अनुरोध करते और दो चार महीने तक हिंदी विद्यालय की कक्षा वहां चलाने की अनुमति मिलती यह सिलसिला कुछ महीनो तक जारी रहा। शहर के तब के प्रख्यात अधिवक्ता स्व प्रफुल्ल कुमार बरुवा पाण्डेय से पुत्रवत स्नेह करते थे। पाण्डेय जी के कहने पर बरुवा जी ने सुम् दीरी नदी के किनारे विद्यालय के लिए जमीन दान में दे दी। उनकी शर्त के अनुसार विद्यालय का नाम बदलकर बरुवा जी के पिता के नाम से सर्वेश्वर बरुवा हिंदी विद्यालय कर दिया गया। चार साल के बाद जॉन फर्थ क्रिस्चियन इंग्लिश हाई स्कूल की तत्कालीन अध्यक्ष स्व मीरा हैन्दिक ने पाण्डेय जी के समक्ष अपने विद्यालय में बतौर हिंदी शिक्षक कार्य करने का प्रस्ताव रखा। यह भी कहा कि विद्यालय का सरकारीकरण हो जाने पर उन्हें लाभ होगा। अक्टूबर 1972 में पांडेयजी ने हिंदी विद्यालय से अवकाश लेकर जॉन फर्थ क्रिस्चियन इंग्लिश हाई स्कूल (मिशनरी स्कूल जो पुर्णतः प्राइवेट है ) में 150 रु मासिक मानदेय पर पार्ट टाइम कर्मी के रूप में अध्यापन कार्य प्रारंभ किया। हांलाकि इस विद्यालय का भी सरकारीकरण नही हुआ। अपने कार्यकाल के दौरान दो बार उन्हें विद्यालय संचालन समिति के सदस्य के रूप में चुना गया। विद्यालय की प्रगति के लिए इन्होने भरपूर प्रयास भी किया किन्तु इतर धर्म का होने के कारण इनका समर्थन करना तो दूर इनकी उपेक्षा ही की गई। बाद में स्कूल का त्याग कर ट्यूशन करने के साथ-साथ पत्र-पत्रिकाओं में लिखना शुरू किया। उस समय सकारी स्कूल में नौकरी प्राप्त करना कठिन नहीं था। पाण्डेय जी यदि चाहते तो उन्हें सरकारी नौकरी मिल भी जाती। ईटानगर के एक आरक्षी अधीक्षक ने तब उन्हें पुलिस उप निरीक्षक पद पर काम करने का ऑफर भी दिया था, पर वे एक स्थान पर स्थाई रूप से रहना चाहते थे ताकि अपने बच्चों को ठीक से पढ़ा सके। ये बहुत ही अनुशासन प्रिय थे। विद्यालय के प्रधान शिक्षक लालटेनपुइया साईंलो ने इनकी सेवा से संतुष्ट व् प्रभावित होकर इन्हें “आदर्श शिक्षक” के रूप में स्वीकृति देने के लिए अभिनन्दन पत्र प्रदान कर इन्हें सम्मानित किया था। जब ये हिदी विद्यालय में थे तब इन्होने बच्चों के साथ बैठकर असमिया सीखी और असम साहित्य सभा द्वारा संचालित परीक्षा दी और उत्तीर्ण भी हुए।

राष्ट्रभाषा प्रचारक के रूप में
सन 1972 में जोरहाट से इन्होने वर्धा समिति की “राष्ट्रभाषा रत्न“ की परीक्षा दी और सफलता हासिल की। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने इन्हें अवैतनिक हिंदी प्रचारक तथा परीक्षक के रूप में नियुक्ति दी थी। लखीमपुर में हिंदी के प्रचार प्रसार में इनका विशेष योगदान है। अतिरिक्त समय में इन्होने अवैतनिक शिक्षक के रूप में सेवा भाव से राष्ट्रभाषा महाविद्यालय, राष्ट्रभाषा शिक्षण केंद्र नकारी (संस्थापक) और राष्ट्रभाषा बालिका शिक्षण केंद्र (बालिका उच्चतर माध्यमिक विद्यालय) में अहिन्दी भाषी छात्रो को हिंदी पढ़ाया। इसके एवज में ये किसी तरह का शुल्क लेना तो दूर बच्चों की परीक्षा फीस और किताब के लिए पैसे भी अपने पास से देते थे। अध्यापन काल के दौरान पाण्डेय जी “रीडर्स रीसर्च मॉडर्न इंस्टिट्यूट, जयपुर”  द्वारा संचालित साधारण ज्ञान की परीक्षा भी आयोजित करते थे। इसके लिए वे साईकिल से जाकर  हर स्कूल के प्रधान शिक्षक से मिलकर आग्रह करते थे कि वे अपने स्कूल के छात्रों से इस परीक्षा में शामिल होने के लिए प्रेरित करें। रीडर्स रिसर्च मॉडर्न इंस्टिट्यूट ने इन्हें कई बार मानपत्र प्रदान कर सम्मानित किया था। इनसे हिंदी पढ़ने वाले छात्र न सिर्फ लखीमपुर जिले के बल्कि असम और अरुणाचल के आदिवासी भी थे। इनके बहुतेरे शिष्य हिंदी शिक्षक के रूप में अपनी सेवा दे रहे हैं। इन्हें प्रथम विश्व हिंदी सम्मेलन (नागपुर, 10 जनवरी 1975) और तृतीय विश्व हिंदी सम्मेलन (नयी दिल्ली, अक्टूबर 1983 ) में लखीमपुर का प्रतिनिधित्व करने का मौका मिला था।

समाजसेवी के रूप में रू-बचपन से ही पाण्डेयजी  का झुकाव समाज सेवा की ओर था। तभी तो बिना किसी प्रकार का शुल्क लिए ये अहिन्दी भाषी छात्रों को हिंदी पढ़ाते थे। उन्हें पुस्तकें मुफ्त में देने के लिए इन्होने एक पुस्तकालय खोल रखा था। मुफ्त में दी गई पुस्तकें परीक्षा के बाद वापस ले लेते थे। दो चार लोगों के सहयोग से इन्होने “भोजपुरी परिषद्“ की लखीमपुर जिला शाखा समिति स्थापित की। इन्हें समिति का सलाहकार बनाया गया। भोजपुरी परिषद् के जरिये विभिन्न पिछडे़ इलाकों में जाकर जन जागरण सहित कई जन कल्याणकारी कार्यों को अंजाम देने में इन्होने भरपूर सहयोग दिया। भोजपुरी भाषी समाज के पिछड़े लोगों के बीच जाकर अपने बच्चों को पढ़ाने-लिखाने और जुआ शराब से दूर रहने की नसीहत दी। इसका सुपरिणाम भी दिखा। करीब दो साल के बाद कुछ स्वार्थी तत्वों के चलते संस्था के संस्थापक सदस्यों के साथ साथ पांडेय जी भी भोजपुरी परिषद् से अलग हो गए। पर जिनके मन में समाज सेवा का जज्बा होता है वे यूँ ही नहीं बैठ सकते। दो चार सहयोगियों (सी पी गुप्ता ,राजेश चैधुरी मंगल द्विवेदी मिलन देवनाथ ,राजेश मालपानी ,प्रभात कुमार सिंह और काशी नाथ गुप्ता) के साथ विचार विमर्श कर “जन सेवा“ नामक एक गैर सरकारी संस्था का गठन किया गया। पाण्डेय जी को समिति का सलाहकार बनाया गया। बाद मे संस्था के कार्यों से प्रभावित होकर कई लोग संस्था से जुड़ गए। जन सेवा अपने जन्म लग्न से ही विभिन्न प्रकार के जन हितकारी कार्य क्रमों का आयोजन करती आ रही है। जिनमे आर्थिक दृष्टि से कमजोर तबकों के लिए राशन और वस्त्र वितरण ,कारगिल के शहीदों के परिवार की आर्थिक मदद, मेडिकल कैम्प, छात्र छात्रों में वस्त्र आहार और पठन सामग्री वितरण, कन्या पूजन, शहीदों को श्रद्धांजलि आदि उल्लेखनीय हैं।

पत्रकार के रूप में
गुवाहाटी से “सेंटिनल”( हिंदी दैनिक) का प्रकाशन सन 1986 में शुरू हुआ। किसी के कहने पर पाण्डेय जी ने छोटी सी न्यूज के साथ एक आवेदन पत्र भेज दिया और सेंटिनल प्रबंधन ने  30 मई 1986 को अस्थायी रूप से और 12 फरवरी 1990 को स्थायी संवाददाता के रूप में नियुक्ति पत्र देकर सेवा का मौका दिया। चूँकि पाण्डेय जी एक गैर सरकारी स्कूल में निम्नतम पारिश्रमिक के बदले सेवा दे रहे थे, इसलिए सूचना व् जन संपर्क विभाग के संचालक ने भी इन्हें प्रेस परिचय पत्र (आई कार्ड) प्रदान कर सरकारी स्वीकृति दे दी। जल्द ही इन्होने सेंटिनल परिवार में अपनी अच्छी पैठ बना ली। सन 2005 से कतिपय अपरिहार्य कारणों से इन्होने सेंटिनल के लिए लिखना बंद कर दिया और 2005 के प्रारंभ से “पूर्वोदय” के लिए  लिखना शुरू किया। पूर्वोदय के तत्कालीन संपादक स्व सत्यानन्द जी पाठक ने पाण्डेय जी को लखीमपुर जिले के लिए जिला संवाददाता के लिए नियुक्ति पत्र भेज दिया। तब से लगातार ये दैनिक पूर्वोदय को अपनी सेवा प्रदान कर रहे है। सन 2017-18 में असम सरकार ने इन्हें पत्रकार पेंसन देकर इनकी दीर्घकालीन सेवा को सम्मान दिया। पाण्डेय जी यदि चाहते तो किसी सरकारी स्कूल में नौकरी प्राप्त कर सकते थे और इस समय पेंसन के रूप में एक अच्छी रकम प्राप्त कर रहे होते। पर इन्हें पत्रकारिता और शिक्षण कार्य से प्रेम था। सरकारी नौकरी करने पर ये नियमतः पत्रकारिकता से नहीं जुड़ सकते थे। साथ ही जहां तहां तबादला होने पर उनके बच्चों की शिक्षा बाधित होती। यही सोचकर उन्होंने सरकारी नौकरी की तरफ रुख नहीं किया। घर चलाने के लिए इन्होने ट्यूशन जरुर किया। 65 वर्षीय पाण्डेय जी की एक आँख की दृष्टि सन् 2014 में एक डॉ की लापरवाही से चली गई थी। अवसर ग्रहण के उपरांत भी ये पत्रकारिता से जुड़े हुए हैं, यद्यपि आर्थिक दृष्टि से इन्हें लाभ नहीं है। ये चाहते तो ट्यूशन कर अच्छी कमाई कर सकते थे, पर पत्रकारिता से इन्हें प्रेम है, मोह है।

पाण्डेय जी भारत विकास परिषद्, सर्वेश्वर बरुवा हिंदी विद्यालय, छठ पूजा समिति के विभिन्न पदों पर रह चुके हैं। मौजूदा समय में ये शंकरदेव शिशु विद्या निकेतन की संचालन समिति के सदस्य और जन सेवा के सलाहकार के रूप में अपनी सेवा दे रहे हैं। हाल ही में इन्हें हिंदी भाषी डेवलपमेंट काउंसिल की लखीमपुर जिला समिति के अध्यक्ष पद के लिए चुना गया है।

मुझे इस बात पर नाज है कि मैं पाण्डेय सर का शिष्य रह चूका हूँ। आज मै जिस मुकाम पर पंहुचा हूँ इसमें उनका विशेष योगदान है। मैं उनकी लम्बी उम्र और सुस्वास्थ्य की कामना करता हूँ।

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